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________________ कल्पसूत्रे सशब्दार्थे ॥१०५॥ COOKEDOCOICE6300 • सोना इस लोक में सुखदायी है, उसकी अपेक्षा रत्न अधिक सुखदायी है, इन दोनों से भी बढकर इस अनुपम पुत्र का स्पर्श महासुखदायक है ||३|| 'टीकार्थ- देवों, असुरों और मनुष्यों के समूह से जिसका चरण - वन्दित है, ऐसे अपने बालक का मुखकमल देखकर, त्रिशला देवी के हृदय में जो भाव उत्पन्न हुआ, उसको सूत्रकार 'अह ललियसीलालंकिय - इत्यादि सूत्र - द्वारा प्रदर्शित करते हैं । इसके बाद, सुन्दर - निर्दोष शील-स्वभाव अथवा सद्वृत से युक्त महिलाओं के कर्त्तव्य में निपुण, स्त्री-पुरुष के लक्षण-परिज्ञान में कुशल तथा जिसने अपने पुत्र लक्षण जान लिये हैं, ऐसी उस त्रिशला देवीने, मनोहर गुणगणवाले शुभलक्षणयुक्त ललाटवाले अपने पुत्र महावीर को देखकर, उछलते हुए अतिशय चञ्चल आनन्दरूप तरङ्ग वाले महास्नेहरूपी समुद्र में तैरती हुई, पूर्वोक्त गुणगण से सुशोभित अपने उस अनुपम पुत्र की प्रशंसा करना प्रारंभ किया । वह इस प्रकार Hell त्रिशलादेवी कृतपुत्र स्तुतिः ॥१०५॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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