________________
.
.?.
1.
विपाकचन्द्रिका टीका, अवतरणिका गतिरत्रोपलक्षणमात्रं योगमात्रप्रत्ययत्वात् । गच्छतस्तिष्ठतो. वा . कषायरहितजीवस्य त्रिसमयस्थितिको बन्धों भवति । अकषायो द्विविधः-वीतरागः सरागश्च । तत्र वीतरागस्त्रिविधः-उपशान्तमोहः, क्षीणमोहः, केवली च । तत्र क्षीणमोह-केवलिनौं सर्वथोन्मूलितघातिकर्मराशिकौ । संरागस्तु-संज्वलन' कषायवानपि यः खल्वविद्यमानोदयः सोऽकषाय एव ।
: साम्परायिकेर्यापथकर्मबन्धा नियमेन प्रतिविशिष्टा एव भवन्तीत्युक्तम्, कर्म के आगमन का मार्ग है वह ईयापथकर्म है। ईपिथकर्म के आने में जो ईर्या को कारण रूप से कहा है वह सिर्फ उपलक्षण मात्र हैं, अर्थात् ईर्यापथ कर्मका आस्रव केवल योग से ही होता है, कषाय से नहीं । वह योगी चाहे चल रहा हो, चाहे बैठा हो, उसके तीन समय की स्थितिवाला ईपिथ कर्म का आस्रव ही होगा, साम्परायिक. कर्म का आस्रव नहीं; और उसी का बन्ध होगा। अकषायी-जिनके कषाया. का उदय नहीं है ऐसे जीव दो प्रकार के होते हैं-एक सरागी और दूसरे वीतरागी । उपशान्तमोहगुणस्थानवाले, क्षीणमोहगुणस्थानवाले और केवली, ये तीन जीव सर्वथा कषाय से रहित हैं, क्यों कि कषाय का उदय १० वें गुणस्थान तक ही होता है, आगे के गुणस्थानों में . नहीं । सरागी जीव यद्यपि संज्वलनकषाययुक्त भी होते हैं फिर भी जिनके इसका उदय नहीं है वे जीव भी उनके उदयाभावकी ... अपेक्षा कषायरहित ही माने गये हैं। ..: .... . .. साम्परायिक और ईपिथ-कर्म का बंध जीवों के नियम ले. માર્ગ છે તે ઇયપથકમ છે. ઈર્યાપથકમના આવવામાં જે કંઇને કારણરૂપ કહેલ તે કેવળ ઉપલક્ષણ માત્ર છે. અર્થાત ઈર્યાપકર્મનો આસવ કેવળ ચોગથી જ થાય છે, કષાયથી ना. ते योगी २ भुपयाले मथवा तो मेह र त पण तिने त्रण, सभयनी સ્થિતિવાળે ઈર્યાપથકમના આસ્રવ લાગશે જ, પણ સામ્પરાયિક કમને આસ્રવે લાગશે न अने तेनाम थरी. माया-रेने चायना य नथी सेवा-01-2 प्रारना... हाय छ-(1) मे स०ी, सते. (२) भात वीतराज0. S५न्तमा-गुणस्थानवाण . . क्षीणुभाड-शुष्णु-स्थानवा मन वदी, मेरो सवथा उपायथी हित छ, ... કારણ કે કષાયને ઉદય દશમા ગુણસ્થાન સુધી જ હોય છે, પણ આગળના ગુણસ્થાનોમાં .. थत नथी. सराणा ने बनाययुटत. पाय छ; त नेता ઉદય નથી. તે જીવ પણ તેના ઉદયાભાવની અપેક્ષાથી કષાયરહિત જ માનવામાં