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________________ विपाकचन्द्रिका टीका, अवतरणिका च । अथ किं नाम मूलगुणनिवर्तनाधिकरणम्?, उच्यते-मूलं चासौ गुणश्च मूलगुणः, मूलमाद्यं संस्थानाख्यो गुणो मूलगुणः, स एव निर्वर्तनाधिकरणं मूलगुणनिवर्तनाधिकरणम् , मूलगुणो हि निवृत्तः सन् अधिकरणीभवति कर्मबन्धस्य । औदारिकादीनां पञ्चविधशरीराणां स्वस्ववर्गणापायोग्यद्रव्यनिर्मापितानि संस्थानानि प्रथमसमयादारभ्य मूलगुणनिर्वर्तनाधिकरणरूपाणि, बन्धनिमित्तत्वात् । तत्रौदारिकशरीरस्याङ्गोपाङ्गशुद्धिकर्णवेधावयवसंस्थानादि, तथा वैक्रियशरीरस्याङ्गोपाङ्ग-केश-दशन-नखादिकम् , आहारकशरीरस्य चाङ्गोपाङ्गा- . गुणनिर्वर्तना और उत्तरगुणनिर्वर्तना इस प्रकार से निर्वर्तना के २ लेद हैं । " मूलं चासौ गुणश्च मूलगुणः, मूलमा संस्थानाख्यों गुणः मूलगुणः " मूलरूप गुण का नाम मूलगुण है। यहा आदि का जो संस्थान है वही मूलगुण का वाच्य है। वह निर्वर्तना का अधिकरण होने से मूलगुणनिर्वर्तनाधिकरणरूप से कहा गया है। रचना का विषयभूत हुआ यह मूलगुण, कर्मबंध का अधिकरण होता है। औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण, इन पौगलिक पांच शरीरों के आकार, अपनी २ वर्गणारूप योग्य द्रव्यों से रचे जाते हैं। ये आकार ही कर्मबंध के कारण होने से प्रथम समय से लेकर मूलगुणनिर्वर्तना के अधिकरणरूप होते हैं। औदारिकशरीर में हाथ-पैर आदि अंग और अंगुलि वगैरह उपांगों की शुद्धि करना, कान आदि अवयवों का बींधना, शरीरके आकार का । रचनाविशेष करना, यह औदारिक शरीर की उत्तरगुणनिर्वर्तना है। वैक्रियिक शरीर के अंग, उपांग, केश, दांत और नख आदि की मा प्रमाणे नितनाना मे ले छे. “ मूलं चासौ गुणश्च मूलगुणः, मूलमायं संस्थानाख्यो गुण : मूलगुणः" अर्थात्-भूत३५ गुण तेनु नाम भूदाशुष्णु छे. અહીં આદિનું જે સંસ્થાન છે તે મૂલગુણનું વાય છે. તે નિર્વત્તનનું અધિકરણ હેવાથી મૂલગુણ–નિર્વર્સનાધિકરણ કહેવાય છે. રચનાના વિષયભૂત થયેલ આ મૂલગુણ, કર્મબંધને અધિકરણ થાય છે. ઓદારિક, વૈકિય, આહારક, તેજસ અને કાર્મણ, એ પૌગલિક પાંચ શરીરેનાં આકાર પિત–પોતાની વગણરૂપ એગ્ય દ્રવ્યોથી રચાય છે, એ આકારજ કર્મબંધનું કારણ હોવાથી પ્રથમ સમયથી લઈને મૂલગુણ– નિર્વત્તાના અધિકરણરૂપ થાય છે. ઔદારિક શરીરમાં હાથ-પગ આદિ અંગોની, અને અંગુલી વગેરે ઉપાંગોની શુદ્ધિ કરવી. કાન આદિ અવયાને વીંધવું, શરીરના આકારને રચનાવિશેષ કરે તે દારિક શરીરની ઉત્તરગુણનિર્વના છે. વૈક્રિયશરીરના અંગ,
SR No.009356
Book TitleVipaksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages825
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size58 MB
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