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प्रियदर्शिनी टीका अ० ३६ चतुरिन्द्रियजीवनिरूपणम्
चतुरिन्द्रिय जीगानाह--- मूलम्-चरिंदिया जे जीवा, दुविहा ते पकित्तिया ।
पंजत्तमएजन्ता, तेसिं भेएं सुंणेह से' ॥ १४६ ॥ अंधिया पोतिया चेन, मच्छिया मलगा तहा। भमरे कीडपयंगे य, टिंकणे कंकणे ती ॥१४७॥ कुक्कुंडे सिंगिरीडी" थे, नंदावते य विच्छए । डोले भिंगारीया ये, विथंडी अॅच्छिवेहए ॥१४८॥ अच्छिले महिए अच्छिरोडए विचुयाचित्तपखए । उहिजेलिया जलकारी थे, लीनिया तंवगाँइया ॥१४९॥ इये चडेरिंदिया एएऽणेगहा एवमायओ। लोग एर्गदेलमि, ते सहने परिकित्तिया ॥१५०॥ संतई पप्पणाईया, अपज्जवलिया वि । ठिई पडुच्च साईया, लपजवलिया कि ये ॥१५१॥ छच्चेव या माला ऊ, उक्कोलेण विवाहिया । चरिंदिय ओउठिई, अंतोमुहत्तं जहन्निया ॥१५२॥ संखिजंकालमुक्कोला, अंतोमुहत्तं जहँनिया। चउरिदियकाएंठिई, तं कायं तु अमुंचेओ ॥ १५३॥ अणंतकालमुकोसं, अत्तोसुहुन्तं जहन्नयं । चउरीदिय जीवाणं, अंतरं च वियाहियं ॥१५४॥ एएलिं वैष्णओ चेकै, गर्धेओ रेलफासओ।
संठाणदेसओ वावि, विहांणाई लहरलओ ॥१५५॥ छाया-चतुरिन्द्रियास्तु ये जीवाः द्विविधास्ते प्रकोर्तिताः ।
पर्याप्ता अपर्याप्ता, तेषां भेदान् शृणुत मे ॥ १४६ ॥ उ० ११०