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मियदर्शिनी टीका अ० १३ चिन-संभूतचरितवर्णनम् ___मृत्युमुखे पतितं परन च दुःखाभिहत जीव स्वजनादयो न नातु समर्था इति स दृष्टान्तमशरणभारनामाइ--
मृलम्जहे है सीहो व मिय गहाय, मच्चू कर णेई हु अंतकाले । णतस्स मौया पिया व भौया, कालंम्मि तम्म संहराभवति ॥२२॥ छाया-यह सिंहो वा मृग गृहीत्वा, मृत्युनर नयति हु पन्तकाले। __न तस्य माता वा पिता वा भ्राता, काले तस्मिन्नश हरा भवन्ति ॥२२॥ टीका-'जहे ह' इत्यादि
यथा इहलोके सिंहो मृग गृहीत्वाऽन्त नयतीति शेषः, तथा मृत्युरन्तकाले समय जब कि मनुष्य पर्याय में था, तब धर्म क्यों नही किया। इस लिये हे चक्रवर्ती में आप से कहता है कि पीछे पश्चात्ताप करने का अवसर न आवे इसलिये आप चारित्र धर्मको धारण करो। इसीसे आपको मुक्तिकी प्राप्ति होगी ॥ २१॥
यह जीव जिस समय मृत्युके मुख में पड जाता है तथा परलोक में जय दुःखी होता है तब इसकी रक्षा करने वाला वहां कोई भी स्वजन समर्थ नहीं होता है-यह वात मुनिराज दृष्टान्त देकर समझाते है
'जहेह' इत्यादि। ___अन्वयार्थ (जहा-यया) जैसे (इह) इस ससार में (सीहो-सिंहः) सिंह (मिय गहाय इ-मृग गृहीत्वा नयति) मृगको पकडकर ले जाता है और उसको मार डालता है-वहा उसकी रक्षा करनेवाला कोई नहीं होता है उसी तरह (अतकाले-अन्तकाले) मृत्युके अवसर में (मच्चूમનુષ્ય પર્યાયમાં હતા ત્યા ધર્મ કેમ ન કર્યો. આ માટે ચકવતી ! હું આપને કહુ છુ કે, પછીથી પશ્ચાત્તાપ કરવાનો અવસર ન આવે આ માટે આપ ચારિત્ર ધર્મને ધારણ કરો એનાથી આપને મુક્તિની પ્રાપ્તિ થશે મારા
આ જીવ જ્યારે મૃત્યુના મુખમાં ઝડપાય છે તથા પરલેકમાં જ્યારે દુખી થાય છે ત્યારે એની રક્ષા કરનાર ત્યા કોઈ પણ સ્વજન સમર્થ બની શસ્તે નથી આ વાત મુનિરાજ દ્રષ્ટાંત દઈને સમજાવે છે.
"जहेह"-त्यादि।
मन्वयार्थ-जहा-यथा रेभ इह मा संसारमा सीहो-सिंह सि मिय गहाय णेइ-मृग गृहीत्वा नयति भृगमा ५0 as oलय छे मन भारी नाये छ त्यारे त्या तनी २१॥ ४२नार खातुनथी मेरा शते अतकाले-अन्तकाले