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________________ ४९२ औपपातिकमरे वंदित्ता णमंसित्ता एव वयासी-सुयखाए ते भंते । निग्गये पावयणे जाव किमंग | पुण एत्तो उत्तरतरं ?, एव वदित्ता जामेव दिसं पाउन्भूयाओ तामेव दिस पडिगयाओ ॥ सू०६१ ॥ ॥समोसरण नाम पुज्बद्ध समत्त ॥ कृत्वा वन्दते नमरयति, 'बदित्ता णमसित्ता एव पयासी' वन्दित्वा नमस्थिवैवमवादिषु 'सुयक्खाए ते भते ! निग्गये पावयणे नाव किमग ' पुण एत्तो उत्तरतर ?' स्वा ख्यात तव भद त ! निर्मय प्रवचनम् यावत् किमा! पुनरेतस्मादुत्तरतरम् ' 'एक यार आदक्षिणप्रदक्षिणपूर्वक वदना एव नमस्कार किया, (पदित्ता णमसित्ता एव वयासी) वदना नमस्कार करने के अनतर फिर वे प्रभु से इस प्रकार बोली कि (सुयक्खाए ते भत। णिग्गथे पावयणे) आपने हे भदत ! इस निर्मथ प्रवचन का उपदेश बहुत ही सुन्दर पूर्वापरविरोधरहित-सर्वोत्कृष्टरूप से किया है । (जाव किमग ! पुण एतो उत्तरतर) है प्रभो ! आपने इस निर्मथ प्रवचन में सब ही विषयों को अच्छी तरह समझाया है। कोई भी विषय ऐसा नहीं रहा कि जिस पर आपकी वाणी का अविरल प्रवाह न नहा हो । सब कुछ आपने बहुत सरल भाषा में समझा दिया है। हमन तो आजतक इतना मार्मिक उपदेश नहीं सुना, इससे उत्तम उपदेश की बात ही कहाँ । (एव वदित्ता जामेव दिस पाउब्भूयाओं प्रक्षिपूर्व वहन तेभर नभ२४॥२ ४ा, (वदित्ता णमसित्ता एव वयासी) १नाम२४१२ ४२ सीधा पछी तयारी प्रभुने मा ४२ ४यु (सुयक्साए ते भते । णिम्गये पावयणे) मा महन्त । सा निर्धन्य प्रवचनना 948 म४ साशत, पूर्वाप२विधिलि तमा सवाट यो छ (जाव किमग । पुण एत्तो उत्तरतर) प्रो । माथेमा नियन्य अवयनमा मधा વિષને સારી રીતથી સમજાવ્યા છે કેઈ પણ વિષય એ નથી રહ્યો કે જેના ઉપર આપની વાણીને અવિરત પ્રવાહ વહ્યો ન હય, બધુય આપે બહુ સરલ ભાષામાં સમજાવી દીધુ છે અને તે આજ સુધીમાં આટલો મામિક पहेश सालण्या नथी माथी उत्तम उपहेशनी तो पात ४ १ (एव वदित्ता
SR No.009353
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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