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________________ १७८ औपणनिको चारुवण्णा लज्जा-तवस्सी-जिइंदिया साही अणियाणा अप्पासुया जापादिपदार्थाना यथावस्थितस्वम्पकथा सय तप्रधाना , 'सोयप्पडागा' शौचप्रधाना शौचम्-अन्त करणशुद्धिरपम् , तप्रधाना । यमप्यत्र चरणकरणग्रहगेऽप्यार्जनाटिक गृहीत भवति, तथापि आर्जवादीना पृथकथन प्रधानताल्यापनार्थम्-डायरगन्तव्यम् । 'चारुखण्णा' चारुवर्णा -वर्ण-कान्ति , कीर्ति , मतिथ;-चारुर्वणों येपा ते, गौरवर्णयुक्ता , अथवा उत्तमकीतिमन्त , प्रशस्तमतियुक्ता वा, 'लज्जा-तर-स्सी जिइदिया' लजातप -श्री-जिते न्द्रिया-लजया-मयमविराधनाया हदयसकोचरूपया तप प्रियान्तपत्तेजमा जितानि इन्द्रियाणि यैस्ते तथा, यद्यपि जितेन्दिया इति प्रागुत, तथाप्यत्र लनातप श्रीविशेषित वान पुनरुक्तिदोष । 'सोही' शोधय -गोधियोगात् शोधिरूपा -शुदा-अकलपट्टदया इत्यर्थ , जीवादि पदार्थोके यथावस्थित स्वरूपकथनको सत्य कहत हैं, उससे वे प्रधान थे। (सोयप्पहाणा) अन्त करणकी शुद्धिको शौच कहते है, उसमें वे प्रधान थे। (चार वण्णा) वर्णशब्दका प्रयोग काति, कीर्ति एव मतिमे होता है। इस अपेक्षासे ये सब गौरवर्ण विशिष्ट थे, अथवा उत्तमकीर्तिमपन्न थे, या उत्तमवुद्धि-आत्मकल्याणम आगेर अधिकाधिकरूपसे प्रेरणा करनेवाली बुद्धिसे युक्त थे । (लज्जा-तव-रसी-जिइदिया) लना-सयमविराधनामं सकोच, एव तप श्री के प्रभावसे इन्होंने इन्द्रियोंको जीत लिया था। यद्यपि "जिइदिया" इस पद-द्वारा उनमे जितेद्रियता प्रकट कर दी गई है, फिर भी यहा पर जो पुन जितेन्द्रियता वर्णित हुइ है, वह रज्जा एव तपके प्रभार से उनमें जितेन्द्रियता थी यह विशेषरूपसे कथित हुआ है, अन इस कथनम पुन यथास्थित २१३५नु ४थन सत्य वाय, तेमा तसा प्रधान ता (सोय पहाणा) मत ४२नी शुद्धिने शीय छ, तभा तथा प्रधान, उता (चारवण्णा) पशु ने प्रयास ति, त तमा भतिभा थाय छ આ અપેક્ષાએ તેઓ બધા ગૌરવર્ણવિશિષ્ટ હતા, અથવા ઉત્તમ કીર્તિ સપન્ન હતા, અથવા ઉત્તમબુદ્ધિ-આત્મ કલ્યાણમાં આગળ આગળ વધારેમાં पधारे ३५था र ०२वापाणी भुद्धिवारत (लज्जा-तवस्सी जिइदिया) લજજાન્સ યમવિરાધનામાં સચ તેમ જ તપશ્રીના પ્રભાવથી તેઓએ पद्रियाने ती दीधी छनी ने जिइदिया" से पहथी तभनाभा जिसे પ્રિયપણ પ્રકટ કરી દીધેલ છે, છતા પણ અહી જે ફરીને જિતે ક્રિયતાનુ વર્ણન કરવામા આવ્યુ છે તે લજ્જા તેમજ તપના પ્રભાવથી તેમનામાં જિતેક્રિયપણું હતું તેનું વિશેષરૂપથી કથન કર્યું છે માટે આ કથનમા પુન
SR No.009353
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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