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________________ १७९ पोयषवर्षिणी-टीका सू० २५ भगवदन्तेयासियर्णनम अवहिल्लेसा अप्पडिलेस्सा सुसामण्णरया दंता इणमेव णिग्गंथं पावयण पुरओकाउ विहरंति ॥ सू० २५॥ यदा-सुवद -प्रागिमात्रस्य मिनरूपा , ' अणियाणा' अनिदाना-निदायते=छिद्यते मोलफलमनेन इति निदान-स्वगाटिऋद्विप्रार्थनम् , न विद्यते निदान येषा ते अनिदाना , 'अप्पोमुया' अन्पो मुक्या -अन्पम्---अपगतम् औसुक्यम्-उत्सुकता येपा ते–अन्पोसुक्या - विपयोत्सुक्यरहिता , 'अहिल्लेसा' अहिले या -सयमादबहिर्भूता लेइया मनोवृत्तयो येपा ते इत्यर्थ । 'अप्पडिलेस्सा' अप्रतिलेश्या -अविद्यमाना प्रतिलेश्या -सदृशमनोवृत्तयो येपा ते-अप्रतिलेल्या प्रवर्धमानपरिणामसम्पन्ना , 'मुसामण्णरया' मुश्रामण्यरता -श्रमणस्य भाव श्रामण्य, गोमन श्रामण्य सुश्रामण्य-सम्पूर्ण सकलसावयनिवृत्तिरूप सयम तस्मिन् रता सलग्ना , 'दता' दान्ता-इन्द्रिय-नोइन्द्रियदमनपरायणा इति भाव । 'इणमेव' इदमेव 'णिगथ' नैथ्य-निम्र थाना भावो नैन्य्य-श्रमणधर्ममयम् 'पावयण' प्रवचन-प्र-प्रकृष्टतया उच्यते जीवादिस्वरूप यस्मिन् तरप्रवचन जैनागम तत् 'पुरओकाउ' पुरस्कृत्य-प्रमाणीकृय 'विहरति । विहरन्ति ॥ सू० २५ ॥ रुक्तिदोष नहीं आता है। (सोही) ये शोधि-अकलपहृदयवाले थे, अथवा प्राणिमात्रके मित्रस्वरूप थे। (अणियाणा) मोक्षरूप फल जिसके द्वारा काट दिया जाता है वह निदान है, इस निदानसे ये सर्वथा रहित थे । (अप्पोमुया) इनमें विषयसम्बन्धी कोइ उ सुकता नही थी। (अवहिल्लेसा) इनका मानसिक व्यापार सयमकी आराधनासे वाहिरका ओर थोडा भी नहीं जाता था। (अप्पडिलेस्सा) मनके साधारण प्रवृत्तिको प्रतिले या कहते है, परन्तु वे अप्रतिले या से-प्रवर्द्धमान मनके शुभ परिणामांसे युक्त थे। (मुसामण्णरया) वे सुश्रामण्य में रत थे, अर्थात् सफल सावयको ३हित ५ भापता नथी (सोही) तेमा शाधि-दुक्तियामाता मा प्राधिभावना भित्रम्प३५ ता (अणियाणा) भाक्ष३५ ५८ नाथा કપાઈ જાય છે તેને નિદાન કહે છે, તેવા નિદાનથી તેઓ સર્વથા રહિત હતા (अप्पोसुया) तमनाभा विषयममधी Bत्सुता नडाती, (अबहिल्लेसा) તેમને માનસિક વ્યાપાર સયમની આરાધનાથી બહારની તરફ જરાપણ જો नहाती (अपडिलेस्सा) भननी साधारण प्रवृत्तिन प्रतिवश्या ४९ छ, ५२तु તેઓ અપ્રતિલેશ્યાથી=પ્રવર્તમાન મનના શુભ પરિણામેથી યુક્ત હતા (સુરા मण्णरया) मा सुबाभयमा २त (सी २२सा) उता, अर्थात् सपणा सावधानी निवृत्ति३५ सयममा तया सहा सन २ता छता, (दता) हन्त इता
SR No.009353
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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