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स्थविराधली
___अर्थः-- में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, च से सम्यक् चारित्र, तप और विनय में सदा उद्यत (अप्रमादी) रागद्वेष रहित होने के कारण सदा मध्यस्थभाववाले आर्यश्री नन्दिल नामक क्षपण (तपस्वी) को मस्तक से वन्दन करता हुँ। श्री नन्दिलजी श्री आर्यमशजी के शिष्य थे ॥३३॥
मूलम्
वड्ढउ वायगवंसो, जसवंतो अजनागहत्थीणं ।
वागरण करणभंगिय, कम्मप्पयडीपहाणाणं ।। ३४ ॥
छायावर्द्धतां वाचकवंशो, यशोवंश आर्यनागहस्तिनाम् । व्याकरण करण भाङ्गिक-कर्मप्रकृतिप्रधानानाम् ॥ ३४ ॥
अर्थःव्याकरण, करण (ज्योतिष), भङ्गजाल और कर्मप्रकृति आदि की प्ररूपणा में सवश्रेष्ठ श्री आर्य नागहस्ती आचार्य की शिष्य परम्परा और यशपरम्परा सर्वदा वढे ॥ ३४॥
मूलम्
जच्चंजणधाउ समप्पहाणं, मुदिय कुवलयनिहाणं । वड्ढउ वायगवंसो, रेवइणक्खत्तणामाणं ॥ ३५ ॥
छायाजात्याञ्जन धातु समप्रमाणां, मृद्वीका कुवलयनिभानाम् । वर्द्धतां वाचकवंशो, रेवतोनक्षत्रनाम्नाम् ॥ ३५ ।।