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स्थविरावली छायावन्दे आर्यधर्म, ततो वन्दे च भद्रगुप्तं च । ततश्चार्यवज्र, तपोनियमगुणैर्वन समम् ॥३१॥
अर्थःमैं श्री आर्य धर्मनामक आचार्य को वन्दन करता हूँ, और उसके बाद श्री भद्रगुप्त नामक आचार्य को वन्दन करता हूँ, और उसके बाद तप नियम आदि गुणों से वज्र के समान बलवान् श्री आर्यवज्रस्वामो को वन्दन करता हुँ ॥३१॥
मूलम्
वंदामि अजरक्खिय, खवणे रक्खिय चारित्त सव्वस्से । रयणकरंण्डगभूओ, अणुओगो रक्खिओ जेहिं ॥ ३२ ॥
छायावन्दे आर्य रक्षित क्षपणान् रक्षित चारित्र सर्वस्वान् । रत्न करण्डक भूतोऽनुयोगो रक्षितो यैः ।। ३२ ॥
अर्थःमैं जिन्होंने रत्नमय पेटी के समान अनुयोग की उन चारित्र (संयम रूप सर्वस्व की) भूतकालमें रक्षा करने वाले श्री आर्य रक्षित क्षपण (तपस्वी) को वन्दन करता हुँ ।। ३२॥
नाणम्मि दंसणम्मि य, तव विणए णिच्चकाल मुज्जुत्तं ।
अजं नंदिल खवणं, सिरसा वंदे पसण्णमणं ॥ ३३ ॥
छायाजाने दर्शने च, तपो विनये नित्यकालमुद्युक्तम् । आर्य नन्दिल क्षपणं, शिरसा वन्दे प्रसन्नमनसम् ।।३३॥