SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्थविरावली सम्यग्दर्शनरूप विशुद्ध (निर्मल) रथ्या (मार्ग) वाला और अखण्ड चारित्ररूप प्राकार (कोट ) वाला हे सङ्घरूप नगर ! तेरा कल्याण हो ॥ ४ ॥ मूलम् - संजम तव तुंबारयस्स, नमो सम्मत्तपारियल्लस्स । अप्पडिचकस्स जओ, होउ सया संघचक्कस्स ॥ ५॥ छायासंयम तपस्तुम्बाऽऽरकस्य ( काय ) नमः सम्यक्त्वपरिकरस्य (राय)। अप्रतिचक्रस्य (क्राय ) जयो भवतु सदा सङ्घचक्रस्य (क्राय) ॥५॥ अर्थःसंयमरूप नाभि ( मध्य भाग) और तपरूप आरा (चारो तरफ के काष्ठ) वाले सम्यक्त्व परिकर ( उपर के भाग) वाले ऐसे शत्रुरहित सङ्घरूप चक्र को नमस्कार और उसकी जय सदा हो॥५॥ मूलम् भदं सील पडागू सियस्स, तव नियम तुरयजुत्तस्त । संघ रहस्स भगवओ सज्झाय सुनंदिघोसस्स ॥ ६ ॥ छायाभद्रं शीलपताकोच्छ्रितस्य, तपो नियमतुरगयुक्तस्य । सङ्घरथस्य भगवतः स्वाध्यायसुनन्दि घोषस्य ॥ ६॥ अर्थ:शील (सवृत्त) रूप पताका से उन्नत तप और नियमरूप दो घोडों से युक्त और पांच प्रकार के स्वाध्यायरूप माङ्गलिक शब्दवाले भगवान् (समस्तैश्वर्यादि षट्कसम्पन्न ) सङ्घरूप रथका कल्याण हो ॥ ६॥
SR No.009350
Book TitleNandisutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages940
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size58 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy