________________
स्थषिरावली अर्थःद्वादशाङ्गरूप श्रुत (शास्त्र ) के प्रभव (उत्पत्तिकारण) अर्थात् अर्थरूप से निर्माता तथा तीर्थंकरों के मध्य में अपश्चिम अवसर्पिणीकाल के २४ तीर्थंकरों के मध्यमें अन्तिम, और तीनों लोक के गुरु, तथा निःस्पृहभावसे तत्त्वोपदेशक महात्मा श्री महावीरस्वामी सर्वोत्कर्ष से वार वार (सदा) विराजते हैं ॥२॥
भदं सव्वज गुज्जोयगस्स, भदं जिणस्स वीरस्स ।
भई सुरासुरनमंसियस्स, भदं धूयरयस्स ॥३॥
छायाभद्रं सर्वजगदुद्द्योतकस्य, भद्रं जिनस्य वीरस्य । भद्रं सुरासुरनमस्यितस्य, भद्रं धूतरजसः ॥ ३॥
अर्थःसव जगत् के उद्द्योतक-ज्ञानरूप नेत्र दे कर जगत् को प्रकाशित करनेवाले सुर और असुरों से वन्दित कर्मधूली को निवारण करनेवाले श्रीमहावीरस्वामी जिन का वारं चार ( सदा ) कल्याण हो ॥ ३॥
मूलम्
(श्री सङ्घस्तुति -) गुण भवणगहणसुयरयण,-भरियदंसण विसुद्धरत्थागा। संघनगर ! भदं ते, अखंडचारित्तपागारा ! ॥ ४॥
छायागुणभवनगहनश्रुतरत्न,-भूतदर्शन विशुद्धरथ्याक !। सङ्घनगर ! भद्रं ते, अखण्डचारित्रमाकार ! ॥ ४ ॥
अर्थःगुणरूप घरोंसे गहन ( दुर्गम) श्रुत (शास्त्र ) रूप रत्नों से भरी हुई और