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________________ अथ स्थविरावली मूलम्जयइ जगजीवजोणी,-वियाणओ जगगुरू जगाणंदो। जगणाहो जगबंधू, जयइ जगप्पियामहो भयवं ॥ १ ॥ छायाजयति जगज्जीवयोनि,-विज्ञायको जगद्गुरुर्जगदानन्दः । जगन्नाथो जगद्वन्धुर्जयति जगत्पितामहो भगवान् ॥१॥ अर्थःजगत् (तीन लोक) के जीवों की योनि (उत्पत्तिस्थान) के जाननेवाले तथा जगद्गुरु, जगदानन्द-संज्ञिपंचेन्द्रियरूप जगतको मोक्षाभ्युदयसाधक अमृतवर्षिणी देशना से ऐहलौकिक पारलौकिक आनन्द देनेवाले तथा दर्शनमात्र से आनन्द उत्पन्न करनेवाले, जगन्नाथ (चराचररूप जगत् के स्वामी ) जगबन्धु (जगत् के बन्धुवत्)-सर्व माणि समुदायरूप जगत् को अहिंसारूपका उपदेश करनेसे रक्षक होने के कारण वन्धुके समान, जगत्पितामह (जगत् के जनक के जनक)- अर्थातसकल माणियों के नारकादि कुगति-विनिपात भय और अनर्थ (अनिष्ट ) से रक्षा करनेके कारण पिताके समान सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित मूलगुण और उत्तरगुणों का समुदायरूप धर्म है उसके अर्थतः उत्पादक, भगवान् ( सर्वेश्वर्य १ सम्पत् २ यश ३ श्री ४ ज्ञान ५ वैराग्य ६ रूप भगवाले ) सर्वोत्कर्षसे वारंवार (सदा) विराजते हैं ॥१॥ मूलम् जयइ सुयाणं पभवो, तित्थयराणं अपच्छिमो जयइ । १० ६ जयइ गुरू लोगाणं, जयइ महप्पा महावीरो ॥२॥ छायाजयति श्रुतानां प्रभवः तीर्थकराणामपश्चिमोजयति । जयति गुरुलॊकानां, जयति महात्मा महावीरः ॥२॥
SR No.009350
Book TitleNandisutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages940
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size58 MB
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