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________________ १९६ मम्म्द्वीपप्राप्तिको सम्प्रति चतुर्यमण्डलादिष्यतिदेशमाह-एवं खलु एएणं उवाएणं' इत्यादि, 'एवं खलु एएणं उवाएणं' एवं खलु एतेन मण्डलदर्शितोपायेन प्रकारेण 'जाव संकरमाणे संकममाणे अत्र यावत्पदेन 'पवि प्रमाणे चंदे तयाणं नराओ मंडलाओ तयाणंतर मंडलं' इत्यस्य ग्रहणं भवति, ततश्च प्रविशन् मेरोरभिमुखं गच्छन् चन्द्रः तदनन्तरामण्डलात्तदनन्तरं मण्डलं संक्रामन् संक्रामनू 'तिष्णि तिणि जोवणाई' त्रीणि श्रीणि योगनानि 'छण्णउइंच पंचावण्णे भागसए' पण्णवतिं च पञ्चपञ्चाशदधिकानि भागशतानि 'एगमेगे मंडले मुहत्तगई णिबुद्धेमाणे णिवृद्धमाणे' एकैकस्मिन् मण्डले मुहर्जगति निपईयन् निवर्द्धयन्-हापयन् हापयन् त्यजन् त्यजन् 'सव मंतरं मंडलं उपसंकगित्ता चार चरई' सर्वाभान्तरमण्डलघुपसंक्रम्य संप्राप्य चारं गति चाति-करोति । अत्र विशेषत उपपत्तिः सूर्यप्रस्ताचे प्रदर्शिता न पुनरत्र प्रदर्यते विस्तरभयादिति चतुर्दशसूत्रम्-सू०१४ ॥ चन्द्राधिकारं निरूप्य नक्षत्राधिकारं दर्शयति, तत्र-नक्षत्राधिकारे अष्टौ द्वाराणि भवन्ति, तया मण्डलसंख्या प्ररूपणा १, मण्डलचारक्षेत्रप्ररूपणा २, अभ्यन्तरादि मण्डल अव सूत्रकार चतुर्थ मंडलादि कों में अतिदेश का कथन करते हैं-'एवं खल एएण उचाएणं जाच संकममाणे इस तरह से इन पूर्वोक्त तीन मंडलों में प्रदर्शित रीति के अनुसार मेरु के सन्मुख जाता हुआ चन्द्र तदनन्तर मंडल से तदनन्तर मंडल पर संकमण करता हुआ 'तिणि जोयणाई तीन तीन योजन एवं 'छण्णउइं च पंचावणे भागसए' ९६५५ भागों तक 'एगमेगे मंडले मुहत्संगई निबुद्धेमाणे २' एक एक मंडल पर मुहर्त गति को कम करता हुआ 'सव्वन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं वरइ' सर्वाभ्यन्तर मंडल पर आकर अपनी गति करता है। यहां पर विशेष और संव कथन सूर्य प्रकरण में प्रकट किया जा चुका है उसे यहां ग्रन्थ के विस्तार होजाने के भय से पुनः हम प्रकट नहीं करते हैं ॥१४॥ चन्द्र के अधिकार का निरूपण करके अब सूत्रकार नक्षत्र के अधिकार का निरूपण करता हैं इस नक्षत्राधिकार में ८ द्वार हैं-(१) मंडलसंख्याप्ररूपणा (२) वे सूत्रा२ यतुथ' भ3anti मतिनु ४थन ४रे छ. .वं खलु एएणं उखाएणं जाव संकममाणे २' मा प्रभाव से पूst a भीमा. शत शत भुगम મેરુની સન્મુખ જ ૨% તદનંતર મંડળથી તદનંતર મંડળ પર સંક્રમણ કરતા-કરતે 'तिणि जोयणाई - यो मन 'छण्णाईच पंचावणे भागसए' ६६५५ भाग सुधी 'एगमेगे मंडले मुहुत्तगई निशाणे २' ४-४ भ30 6५२ मुहूत गतिन ६५ ६५ ४२ सव्वभंतर मडल वनकमित्ता चार चरई' साक्ष्य तभ३७ ५२ भावीन પિતાની ગતિ કરે છે. અહીં વિશેષ બધું કથન સૂર્યપ્રકરણમાં પ્રકટ કરવામાં આવેલું છે. જન્ય વિસ્તારભયથી પુનઃ તે કથન અત્રે પ્રકટ કરતા નથી. ૧૪ ચન્દ્રના અધિકારનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર નક્ષત્રના અધિકારનું નિરૂપણ કરે
SR No.009347
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages569
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size46 MB
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