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________________ प्रकाशिका टीका-सप्तमवक्षस्कारः सू. १० इन्द्रच्यवनानन्तरीयव्यवस्थानिरूपणम् १४७ स्थिरत्वं दृष्टान्त द्वारा दर्शयति-कूडाविव' इत्यादि, 'कूडाविव ठाणहिया' कूटानीव स्थान स्थिताः मनुष्यक्षेत्र बहिवत्ति चन्द्रादयः तत्र कूटानीव पर्वताग्रस्थित शिखराणीव स्थान स्थिताः सर्वदेव-एकत्र स्वकीयस्थाने एव स्थिता वर्तमानाः चलनधर्मरहिता इत्यर्थः । इत्यंभूनास्ते चन्द्रादयः 'सव्व संमता तेपएसे' सर्वतः समन्तात् तान् प्रदेशान् स्वस्व समीप वर्तिनः 'ओभासेंति उज्जोवेति तवेति पभासेंति त्ति' अवभासयन्ति उद्योतयन्ति तपन्ति प्रभासयन्ती। मनुष्यक्षेत्रबहिर्भूत चन्द्रादीनां ज्योतिष्कदेवानां स्वकीय स्वकीयेन्द्राभावे व्यवस्था दर्शयितुं प्रश्नयनाह-'तेसि णं भंते' इत्यादि, 'तेसि णं भंते' तेषां मानुषक्षेत्रबाहिभूतदेवानां खलु भदन्त ! 'देवाणं' देवानां ज्योतिष्कानाम् 'जाहे इंदे चुए भवई' यदा-यस्मिन्-, का इन्द्रच्श्युतो भवति-तत्स्थानात् च्युतः परिभ्रष्टो भवति से कहमियाणि पकरेंति' ते देवाचन्द्रादयः इदानी मिन्द्रच्यवनकाले कथं-केन प्रकारेण व्यवस्थां प्रकुर्वन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'जाव जहण्णेण एगं समयं उक्कोसेणं छम्मासा इति' यावत् जघन्येनैकं समयम् उत्कर्षण, से मिश्रित सूर्य की प्रभा है और सूर्य की प्रभा से मिश्रित चन्द्र की प्रभा है इस तरह से यह चन्द्र और सूर्य की प्रभा का यह आपस में मिश्रीभाव कहा गया है। इनकी स्थिरता समझाने के लिये ही कूट का दृष्टान्त दिया गया है मनुष्य क्षेत्र बहिर्वती चन्द्रादिक सब ही ज्योतिषी देव हलन चलन क्रिया से रहित कहे गये हैं इस प्रकार से ये चन्द्रादिक सर्वतः चारों ओर उन २ प्रदेशों कोभपने अपने समीपवर्ती स्थानों को-अवभासित करते हैं, उद्योतित करते हैं, तपाते हैं, और चमकाते रहते हैं। अब गौतमस्वामी प्रभु से ऐसा पूछते है-'तेसि ण मंते ! देवाणं जाहे इंदे चुए भवई' हे भदन्त ! मनुष्यक्षेत्र बहीर्वती इन ज्यो. तिष्क देवों का जब इन्द्र अपना अपना इन्द्रच्युत होता है अपने अपने स्थान से परिभ्रष्ट होता है-से कहमियाणि पकरेंति' तो वे ज्योतिषी देव इन्द्रादिक के भभाष में-अपने यहां की कैसे व्यवस्था करते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते ચન્દ્રની પ્રજાથી મિશ્રિત સૂર્યની પ્રભા છે અને સૂર્યની પ્રભાથી મિશ્રિત ચન્દ્રની પ્રજા - છે. આ પ્રમાણે આ ચન્દ્ર અને સૂર્યની પ્રભાને આ પરસ્પરમાં મિશ્રીભાવ કહેવામાં આવેલ છે. એમની સ્થિરતા સમજવા માટે જ કૂટનું દષ્ટાન્ત આપવામાં આવેલું છે. મનુષ્ય ક્ષેત્ર બહિવતી ચન્દ્રાદિક સર્વ તિષી દે હલન-ચલન ક્રિયાથી રહિત કહેવામાં આવેલા છે. આ પ્રમાણે એ ચન્દ્રાદિક સર્વતઃ ચેમેરથી તત્ તત પ્રદેશને પિત–પિતાના સમીપવતી સ્થાને અવભાસિત કરે છે-ઉદ્યોતિત કરે છે તપ્ત કરે છે અને ચમકાવે છે. व गौतमस्वामी प्रभुने माता प्रश्न ४२ छ-'ते सिणं भंते ! देवाणं जाहे इंदेचा भवई' Dard ! मनुष्य क्षेत्र माहिती न्याdिes वानर न्द्र न्यारे पात-पाताना शान ५२यी व्युत थाय छ-पोताना स्थान परथी पविष्ट थाय णि पकरें । તે તે તિથી દેવ ઈન્દ્રાદિકના અભાવમાં પિતાની વ્યવસ્થા છે? એg,
SR No.009347
Book TitleJambudwip Pragnaptisutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1978
Total Pages569
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size46 MB
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