SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 599
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुबोधिनी टीका' सु. ८६ सुर्याभस्य इन्द्राभिषेकवर्णनम् सहस्रेण सौवर्णिकानां कलशानां. यावत् अष्टसहस्रेण भौमानां कलशानां सर्वोदकैः सर्वमृत्तिकाभिः सर्व तुवरैः यावत् सवौं पधिसिद्धार्थकैश्च सर्वद्वर्या यावत् प्रवादितेन महता महता इन्द्राभिषेकेण अभिषिञ्चन्ति ।। १० ८६ ।। 'तए णं' इत्यादि टीका---ततः आभियोगिकदेवैः अभिषेकसामग्युपस्थापनानन्तर खलु तं मूर्याभं देवं चतस्रः सामानिकसाहस या चतुस्सहस्रसंख्यका देवाः, गया है और जिनके कंठों में पुष्पो की मालाएँ पड़ी हुई हैं (पउमुप्पलपिहाणेहिं) कमलरूप ढक्कन जिनके मुख.पर ढके हुए हैं (सुकुमालकोमलपरिग्गहिएहि) और जो अतिसुकुमार हाथो में धारण किये हुए वे इन्द्रपद में अभिषेक किया इन कलशो में (अट्ठसहस्सेण सोबणियाण कलसाण जात्र अट्ठसहस्सेणं भोमिज्जाणकलसाण) १००८सुवर्णनिर्मिन कलश थे, यावत १००८ मिट्टी के कलश थे तथा (सव्वोदपहिं सबमटियाहिं सब्बतूयरेहि जाव सम्बोसहिसिद्धस्थएहि य सबिडीए 'जाव पवाइएण महया महया इंदाभिसे एण अभिसिंचति) सर्वोदकों से-समस्ततीथों के लाये हुए जल से, समस्ततीथों से लाई हई मृत्तिकासे, आमलकादि सर्व प्रकार के कपायद्रव्यों यावत् सौषधियों से एवं सिद्धार्थकों से, अपनी सर्व प्रकार की ऋद्धि के अनुसार तुमुलबाजों की ध्वनि पूर्वक उस सूर्याभदेवका विशालरूप से इन्द्रपद में अभिषेक किया.। टीकार्थ-जब आभियोगिक देवोंने अभिषेक सामग्री उपस्थित कर दी तब उस सूर्याभदेव का. चार हजार सामानिक देवोंने सख्यादि परिभण३५ माछाहनथारेमा समाहित छ. (सुकुमाल कोमलपरिग्गहिए हिं) गरेर અતિ સુકુમાર હાથમાં ધારણ કરાયેલાં છે. તેમનાથી ઈન્દ્રપદ પર અભિષેક કર્યો તે કલશમાં (अट्ठसहस्सेण सोवन्नियाण कलसाण जाव असहस्सेण भोमिज्जाणं कलसाणं) १००८ सुवर्ण निर्मित थी यावतू १००८ माटीना थी तभ (सब्योदएहिं सव्व महियाहिः संवतूयरेहिं जाव सम्योसहिसिद्धत्यएहि य सविडोए जांच-पत्राइएणमहया महया इंदाभिसेएण अभिसिंच ति) साथी-समस्त તીર્થોમાંથી, લાલા જળથી સમસ્ત તીર્થોની માટીથી આમલક વગેરે સર્વ પ્રકારના | કષાય દ્રવ્યથીયાવ સર્વોષધિઓથી અને સિદ્ધાર્થકેથી પિતાની સર્વ પ્રકારની અદ્ધિમુજબ તમલ વાજાઓની તુમુલ ધ્વનિ સાથે વિશાળરૂપથી સૂર્યાભદેવનો ઈન્દ્રપદ પર અભિષેક કર્યો. ટીકાર્થ-જ્યારે આભિગિક દેવેએ અભિષેકની સમસ્ત સામગ્રી ઉપસ્થિત કરી ત્યારે તે સૂર્યાભદેવને ચાર હજાર સામાનિક દેવોએ સખ્યાદિ પરિવાર સહિત ચાર
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy