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गोधिनीटीका न. १ यामलकल्पानगरीवर्णनम्
यास्तदेव स्थितन्याभिप्रायेण । इयं कीदृशी इत्याह-'ऋद्धे' त्यादि-ऋद्धस्तिमित ममिद्धा-कहा-विभव-भवनाद्रिभिद्धि प्राप्ता, स्तिमिता-स्वचक्रपरचक्र. भगरहिता स्थिरत्यर्थः,समुद्रा-धनन्धान्यादि समृद्रियुना, एभिस्त्रिभिः पदैः कर्मधारयसमासः। अद्धा चासौ स्तिमिता चासो समृदा चेति । 'जाव' यान, यावच्छब्दानगरी वर्णनमौपपातिकत्रयर्णितचम्पानगरीबद् बोध्यम् । नार्थ निजामुभिरौपपातिकमूत्रस्य मत्कृता पीयूपवर्षिणी टोका दिलोकनीयेति । प्रामादीया-प्रमाद:-मनः प्रसन्नता प्रसन्नता प्रयोजनं यस्याः मा प्रामादीया दिग्बलाया गया है, मो उसका कारण ऐसा है कि जिन विशेषगों से युक्त उसे कहा गया है, अब वह इन विशेषणों वाली नहीं है वह तो उसी ममय थो. रिद्ध-स्थिनियसमिद्वा०' इस नगरी का वैभव और भवन आदि गर कुछ दृद्धि को प्राप्त था इससे यह वृद्धि की चरम सीमा पर पहुँची हुई शी स्वचक्र और परचक्र का इसमें थोडा सा भी भय नहीं था इसलिये यह
निमित-स्थिर यी धनधान्यादिरूप अपनी समृद्धिसे हरीभरी बनी हुई थी इस लिय बन्द स्तिमिन समझा बाही गई है 'जाव' यहां जो यह 'योयत्' पद आया है, उससे मत्रकारने यह मूचित किया है कि इस नगरी का पूर्ण वर्णन, औपपातिकमूत्र में जाना चंगनगरी का वर्णन किया गया है वैमा ही समझना चाहिये नदि उसे जानने की इच्छा हो नो औपपातिकमूत्र के ऊपर जो पीयूपपिणी नामकी टीका लिखी गई है उससे यह जाना जा सकता है प्रासाबाया-गा. नगरी मनः प्रसन्नता जनक प्रयोजन वाली थी अर्थात् हार्दिक