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________________ प्रमैयबोधिनी टीका पद ६ सू.२ विशेषोपपातनिरूपणम् ९५९ . उववाएणं पण्णत्ता' प्रत्येकम् अनुसमयम्-प्रतिसमयम् उपपातेन अविरहितं प्रज्ञप्तम् .. गौतमः पृच्छति-'बेइंदियाणं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पण्णता?' हे भदन्त ! द्वीन्द्रियाः खलु कियन्तं कालम् उपपातेन विरहिताः प्रज्ञप्ताः ? भगवान् आह-'गोयमा' हे गौतम ! 'जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं' जघन्येन एक समयम् , उत्कृष्टेन अन्तर्मुहूर्त यावत् द्वीन्द्रियाः उपपातेन विरहिताः प्रज्ञप्ताः । एवं ते इंदिय चउरिदिया' एवम्-द्वीन्द्रियवदेव त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिया अपि जघन्येन एक समयम् , उत्कृष्टेन अन्तर्मुहूर्तम् यावत् उपपातेन विरहिताः प्रज्ञप्ताः, गौतमः पृच्छति-'संघुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उवचारणं पण्णत्ता ?' हे भदन्त ! समुच्छिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः खलु कियन्तं कालम् उपपातेन विरहिताः प्रज्ञप्ताः ? भगवान् आह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं अंतोमहत्तं जघन्येन एक समयम् , उत्कृष्टेन अन्तर्मुहूर्तस् यावत् , संखुच्छिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्यो इनके उपपात में भी एक समय का भी विरह नहीं होता। गौतम-हे भगवन् ! दीन्द्रियजीवों के उपपात का विरह कितने काल तक कहा है ? - भगवान-हे गौतम ! जघन्य एक समय तक, उस्कृष्ट अन्तर्सहती तक दीन्द्रियों के उपपात का विरह कहा है। इसी प्रकार त्रिन्द्रिय जीवों ना उपपातविरह भी जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्त मुहर्त तक समझना चाहिए। - गौतम-हे भगवन् ! संचूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के उपपात का विरह कितने काल तक होता है ? भगवान-हे गौतम ! जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त तक उपपातविरह होता है। . શ્રી ગૌતમસ્વામી–હે ભગવન્! હીન્દ્રિય જીના ઉપપાતને વિરહ કેટલા सुधा स छ ? - શ્રી ભગવાન હે ગૌતમ! જઘન્ય એક સમય સુધી, ઉત્કૃષ્ટ અન્તમુહૂર્ત સુધી, દ્વીન્દ્રિયોને વિરહ કહ્યો છે. એ જ પ્રકારે ત્રીન્દ્રિય તથા ચતુરિન્દ્રિય જીના ઉપપતનો વિરહ પણ જઘન્ય એક સમય સુધી, અને ઉત્કૃષ્ટ અન્ત. મુહૂર્ત સુધી સમજ જોઈએ. ( શ્રી ગૌતમસ્વામી–હે ભગવન ! સંમૂઈિમ પંચેન્દ્રિય તિર્યંચના ઉપપાતને વિરહ કેટલા કાળ સુધી થાય છે? 1 શ્રી ભગવાન - હે ગૌતમ! જઘન્ય એક સમય સુધી અને ઉત્કૃષ્ટ અન્તभुति सुधी पात वि२६ थाय छे.
SR No.009339
Book TitlePragnapanasutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1196
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size80 MB
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