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________________ प्रमेययोधिनी टीका पद ५ सू.१४ द्विप्रदेशिकपुद्गलपर्यायनिरूपणम् ८४३ -हे गौतम ! तत्-अर्थ' तेनार्थेन' एवम्-उक्तरीत्या उच्यते यत्-'जद्दण्णोगाहणगाणं दुपएसियाणं पोग्गलाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता' जघन्यावगाहनकानाम् एकाकाश प्रदेशाचगाहनवतास् द्विप्रदेशिकानां पुद्गलानाम् अनन्ताः पर्यवाः प्रज्ञप्ताः १ इति, 'उक्कोसोगाहणएवि एवं चेव' उत्कृष्टावगाहनकोऽपि द्विप्रदेशिकः पुद्गलस्कन्धः, एवञ्चव-जघन्यावगाहनकद्विप्रदेशिकपुदगलस्कन्धवदेवावसेयः, किन्तु 'अजहण्णमणुक्कोसोगाहणओ नत्थि' अजघन्यानुत्कृष्टावगाहनकःमध्यमावगाहनको द्विप्रदेशिकः पुद्गलस्कन्धो नास्ति द्विप्रदेशिकस्य पुद्गलस्कन्धस्य जघन्यावगाहना एकप्रदेशात्मिका भवति, उत्कृष्टावगाहनातु द्विप्रदेशात्मिका भवति, तयोरपान्तराला भावेन मध्यमावगाहनाया अभावात्, गौतमः पृच्छति-'जहण्णोगाहणयाणं भंते ! तिपएसियाणं पुच्छा' हे भदन्त ! जघन्यावगाहनकानाम् एकाकाशप्रदेशावगाहनामित्यर्थः त्रिप्रदेशिकानां पुद्गगलस्कन्धानां कियन्तः पर्यवाः कारण हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि जघन्य अवगाहना वाले द्विप्रदेशी स्कंधों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं। उत्कृष्ट अवगाहना वाले विदेशी स्कंध की प्ररूपणा भी इसी प्रकार करना चाहिए, मध्यम अवगाहना वाला दिप्रदेशी स्कंध होता ही नहीं है क्योंकि दो परमाणुओं का पिण्ड दिप्रदेशी स्कंध कहलाता है। उसकी अवगाहना या तो आकाश के एक प्रदेश में होगी अथवा अधिक से अधिक दो अकाश प्रदेशों में होगी । एक प्रदेश में जो अवगाहना होती है वह जघन्य अवगाहना है और दो प्रदेशों में जो अवगाहना हैं, वह उत्कृष्ट है। इन दोनों के बीच की कोई अव. नाहना नहीं हो सकती, अतएव मध्यम अवगाहना का अभाव है। गौतम-हे भगवन ! जघन्य अवगाहना वाले अर्थात आकाश के एक प्रदेश में रहे हुए त्रिपदेशी स्कंध के पर्याय कितने हैं ? ઉત્કૃષ્ટ અવગાહનાવોળા દ્વિપ્રદેશી સ્કન્ધની પ્રરૂપણ પણ એજ પ્રકારે કરવી જોઈએ. મધ્યમ અવગાહનાવાળા દ્વિદેશી સ્કન્ધ હતા જ નથી, કેમકે બે પરમાણુઓને પિડ ક્રિપ્રદેશ કન્ય કહેવાય છે. તેમની અવગાહના આકાશના એક પ્રદેશમાં થશે અથવા અધિક બે આકાશ પ્રદેશમાં થશે એક પ્રદેશમાં જે અવગાહના થાય છે તે જઘન્ય અવગાહના છે. અને બે પ્રદેશમાં જે અવગાહના છે, તે ઉત્કૃષ્ટ છે. એ બન્નેની વચ્ચેની કઈ અવગાહના નથી થઈ શકતી, તેથી જ મધ્યમ અવગાહનાને અભાવ છે. શ્રી ગૌતમસ્વામી–હે ભગવન્ ! જઘન્ય અવગાહનાવાળા અર્થાત્ આકાશના એક પ્રદેશમાં રહેલા વિદેશી સ્કલ્પના પર્યાય કેટલા?
SR No.009339
Book TitlePragnapanasutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1196
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size80 MB
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