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________________ ८३६ अंशापना तिकानां द्विप्रदेशिकानामनन्ताः पर्यशाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! जघन्यस्थितिको द्विप्रदेशिको जघन्यस्थितिकस्य द्विप्रदेशिकस्य द्रव्यार्थतया तुल्यः, प्रदेशार्थापेक्षया तुल्यः, अवगाहनार्थतया स्याद्धीनः, स्यातुल्यः स्यादभ्यधिकः यदा हीनः, प्रदेशहीनःअथाभ्यधिकः प्रदेशाभ्यधिकः, स्थित्या तुल्यः, वर्णादिभिश्चतुःस्पशैंथ पट्स्थानपतितः, एवम् उत्कृष्ट स्थितिकोऽपि, अजघन्यानुत्कृप्टस्थितिकोऽपि एवञ्चैव, नवरम् स्थित्या चतुस्थानपतितः एवं यावद्-दशप्रदेशिकः, नवरं प्रदेशपरिवृद्धिः कर्तव्या, अवगाहनार्थतया त्रिप्वपि गमकेषु यावद् दश प्रदेशिके एवं हे गौतम ! अनन्त पर्याय कहे हैं (से केणटेणं भ ते ! एवं वुच्चह-जहपणठिइयाण दुपएसियाण अणंता पज्जवा पण्णत्ता ?) किस कारण से हे भगवन ! ऐसा कहा है कि जघन्य स्थिति वाले दिप्रदेशी स्कंधों के अनन्त पर्याय हैं (गोयमा! जहण्णठिइए दुपएसिए जहण्णठिइयस्स दुपएसियस्स व्वट्ठयाए तुल्ले) हे गौतम ! जघन्य स्थितिक द्विप्रदेशी जघन्य स्थितिक द्विप्रदेशी से द्रव्य की अपेक्षा तुल्य है (पएसट्टयाए तुल्ले) प्रदेशों की अपेक्षा तुल्य है (ओगाहणएट्टयाए सिय हीणे सियतुल्ले सिय अन्भहिए) अवगाहना से कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचितू अधिक होता है (जइ होणे पएसहीणे) यदि हीन हो तो एक प्रदेशहीन हो ता है (अह अन्भहिए पएसअन्भहिए) अगर अधिक है तो एकप्रदेशाधिक होता है (ठिईए तुल्ले) स्थिति से तुल्य (वण्णाइचउफासेहि य छटाणवडिए) वर्णादि से तथा चार स्पर्शो से षटस्थानपतित (एवं उक्कोस ठिईए वि) इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थिति वाला भी (अजहण्णमणुक्कोसटिइए वि एवं) अजघन्य-अनुत्कृष्ट अर्थात् मध्यम स्थिति मनन्त पर्याय ४ह्या छे (से केणटेणं भंते । एवं बुचइ जहण्णठिइयाणं दुपएसियाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता) ॥ २00 डे मगन् । मेषु युं धन्य स्थिति विशी २४न्धान। अनन्त पर्याय छे ? (गोयमा! जहण्ण ठिइए दुपएसिए जहण्णठिइयस्स दुपएसियस्स दवट्ठयाए तुल्ले) 3 गौतम | धन्य સ્થિતિક ક્રિપ્રદેશી જઘન્ય સ્થિતિક દ્વિદેશીથી દ્રવ્યની અપેક્ષાએ તુલ્ય છે (पएसदाए तुल्लो) प्रशानी अपेक्षा तुक्ष्य छ (ओगाहणट्टयाए सिय हीणे सिय तल्ले सिय अभहिए) Aqानाथी ४ायित् डीन, हायित् तुझ्य, मने ४४. यित अधि: थाय छ (अह अभहिए पएस अन्भहिए) २५॥२ मधि छे तो से प्राधि४ थाय छ (ठिइए तुल्ले) स्थितिथी तुल्य (वण्णाइ चउफासेहि य छदाणवडिए) व हिथी तथा या२ २५शाथी पटस्थान पतित (एवं उक्कोसठिइए वि) रे ष्ट स्थिति ५५ (अजहण्णमणुक्कोसठिइए वि एवं चेव)
SR No.009339
Book TitlePragnapanasutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1196
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size80 MB
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