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प्रमैयबोधिनी टीका पद ५ सू०१३ परमाणु हुद्गलपर्यायनिरूपणम् ७८७ संख्येयभागाभ्यधिको वा, संख्येयगुणाभ्यधिको वा, असंख्येयगुणाभ्यधिको वा, अनन्तगुणाभ्यधिको वा, एवम् अवशेपवर्णगन्धरसस्पर्शपर्यवैः पदस्थानपतितः, स्पर्शानां शीतोष्णस्निग्धरुक्षैः पदस्थानपतितः, तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-परमाणुपुद्गलानामनन्ताः पर्यवा प्रज्ञप्ताः, द्विप्रदेशिकानां पृच्छा, गौतम ! अनन्ताः पर्यवाः प्रज्ञप्ताः, तत् केनार्थन भदन्त ! एवमुच्यते-द्विप्रदेशिकानामनन्ताः पर्यवाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! द्विप्रदेशिको द्विप्रदेशिकस्य द्रव्यार्थतया गुण अभहिए वा अणंतगुणअभहिए वा) यदि अधिक हो तो अनन्त भागअधिक, असंख्यातभाग अधिक, संख्यातमाग अधिक, संख्याततगुण अधिक असंख्यातगुण अधिक अथवा अनन्तगुण अधिक होता है (एवं अवसेसवण्णगंध रसफासपज्जवेहिं छट्ठाण वडिए) इसी प्रकार शेष वर्ण गंध, रल और स्पर्श के पर्यायों से षट्स्थानपतित है (फासाणं सीय उसिणणिद्वलखेहिं छठ्ठाणवडिए) स्पर्शों में शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्षस्पर्शों से षट्स्थानपतित है (से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुच्चई-परमाणुपोग्गलाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता) इस हेतु से हे गौतम ! ऐसा कहा है परमाणुपुद्गलों के अनन्त पर्याय हैं।
(दुपएसियाणं पुच्छा ?) दिप्रदेशी स्कंधों की पृच्छा? (गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता) हे गौतम ! अनन्त पर्याय कहे हैं (से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-दुपइसियाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता !) हे भगवनू किस कारण ऐसा कहा है कि दिप्रदेशी स्कंधों के अनन्त पर्याय कहे हैं ? (गोयमा ! दुपएसिए दुपएलियस्स दवट्टयाए तुल्ले) हे गौतम ! हिए वा संखेज्जइ गुण अभहिए वा असंखेज्जइ गुण अभहिए वा अणत गुण अभहिइ वा) ने मधि४ यतो मनन्त all मधिर, अस यातमा मधि: સંખ્યાત ભાગ અધિક, સંખ્યાત ગુણ અધિક, અસંખ્યાત ગુણ અધિક અથવા मनन्त गु धि४ थाय छे (एवं अवसेसा वण्ण गंध रस फास पज्जवेहिं छद्राण वडिए) से प्रारे शेष, प, मध, २स मने २५॥ ना पर्यायाथी ५८स्थान पतित छ (फासाणं सीय उसिण गिद्ध लुक्खेहिं छट्ठाणवडिए) २५मां शीत, Gue, नियमेने ३६ पर्यायाथी ५८स्थान पतित छ (से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्वइ-परमाणुपोग्गलाणं अणंत। पज्जवा पण्णत्ता) मे तुथी मे घुछ કે હે ગૌતમ ! પરમાણુ પુદગલના અનન્ત પર્યાય છે
(दुपएसियाण पुच्छा ) द्विअशी २४न्यानी छ ? (गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता) गौतम ! २मानत पर्याय हा (से केणद्वेग भंते एवं बुच्चइ-टुपएसियाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता ?) से सपन् ५२२ मे
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