SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 739
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद ५२.०११ मनुष्यपर्यायनिरूपणम् कियन्तः पर्यवाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! अनन्ताः पर्यवाः प्रज्ञप्ताः, तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-केवलज्ञानिनो मनुष्याणाम् अनन्ताः पर्यवाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! केवलज्ञानी मनुष्यः केवलज्ञानिनो मनुष्यस्य द्रव्यार्थतया तुल्यः, प्रदेशार्थतया तुल्यः, अवगाहनार्थतया चतुःस्थानपतितः, स्थित्या त्रिस्थानपतितः, वर्णगन्धरसस्पर्शपर्यवैः पटूस्थानपतितः, केवलज्ञानपर्यवैः केवलदर्शनपर्यवैश्व तुल्यः, एवं केवलदर्शनी ज्ञान हैं वहां अज्ञान नहीं है (जय अण्णाणा तत्थ लाणा नास्थि) जहां अज्ञान हैं वहां ज्ञान नहीं है (जत्थ दसणा तत्य णाणा वि अण्णाणा वि) जहां दर्शन हैं वहा ज्ञान भी और अज्ञान भी होते हैं (केवलनाणीणं भते! मणुस्साणं केवड्या पज्जा पण्णत्ता १) हे भगवन् ! केवलज्ञानी मनुष्यों के कितने पर्याय कहे हैं ? (गोयमा! अणंता पज्जवा पण्णत्ता) हे गौतम्र! अनन्त पर्याय कहे हैं (सेकेण?णं भंते ! एवं बुच्चइ-केवलनाणीण भणुस्साणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता?) हे भगवन् ! किस कारण ऐसा कहा जाता है कि केवलज्ञानी मनुष्यों के अनन्त पर्याय हैं ? (गोरमा ! केवल नाणी मनसे केवलनाणिस्स मणूसस्स दवट्ठयाए तुल्ले) केवलज्ञानी मनुष्य केवलज्ञानी मनुष्य से द्रव्य की दृष्टि से तुल्य है (पए सट्टयाए तुल्ले) प्रदेशों से तुल्य है (ओगाहणट्टयाए चउट्ठाणचडिए) अवगाहना से चतु:स्थानपतित है (ठिईए तिहाणवडिए) स्थिति से त्रिस्थानपतित है (वण्णगंधरसफासपज्जवेहि छट्ठाणवडिए) वर्ण, गंध, रस, स्पर्श के पर्यायों से षट्स्थानपतित है (केवलनाणपज्जवहिं केवलदसणपज्जवेहि य तुल्ले) (जस्थ अण्णाणा तत्थ णाणा णत्थि) त्या अज्ञान छ त्यो ज्ञान नथी (जत्थ दसणा तत्थ णाणा वि अण्णाणा वि) orयां शन छ, त्यो ज्ञान ५ मने अज्ञान डाय (केवलनाणीणं भंते ! मणुस्साणं केवइया पज्जवा पण्णत्ता ?) लापन् । पर सानी मनुष्याना टसा पर्याय हा छ (गोयमा! अणंता पज्जवा पण्णत्ता) गौतम ! मनन्त पर्याय ४ा छ (से केणटेणं भंते । एवं बुच्चइ केवलनाणीणं मणुस्साणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता?) हे भगवन् ! शरणे ओम उपाय छ । पसज्ञानी मनुष्याना मनन्त पर्याय छ १ (गोयमा! केवलनाणी मणूसे केवल नाणिस्स मणूसस्स व्वट्ठयाए तुल्ले) सज्ञानी मनुष्य पणज्ञानी मनुष्यथा द्रव्यनीष्टिये तुल्य छ (पएसट्टयाए तुल्ले) प्रशाथी तुल्य छ (ओगाहणट्टयाए चट्टाणवडिए) Aqानाथी यतुः-थान पतित छे (ठिईए तिढाणवहिए) स्थितिथी निस्थान पतित छ (वण्ण गंघ रस फास पज्जवेहिं छट्टाणवडिए) प , रस, २५शना पर्यायाथी ५८६यान पतित छे (स्वलनाणपज्जवेहिं
SR No.009339
Book TitlePragnapanasutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1196
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size80 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy