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________________ प्रमैयबोधिनी टीका पद ५ सू.०११ मनुष्यपर्यायनिरूपणम् प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! अनन्ताः पर्यवाः प्रज्ञप्ताः, तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यतेजघन्यावधिज्ञानिनां मनुष्याणामनन्ताः पर्यवाः प्रज्ञप्ताः? गौतम ! जघन्यावधिज्ञानी मनुष्यो जघन्यावधिज्ञानिनो मनुष्यस्य द्रव्यार्थतया तुल्यः प्रदेशार्थतया तुल्यः, अवगाहनार्थतया त्रिस्थानपतितः, स्थित्या त्रिस्थानपतितः, वर्णगन्धरसस्पर्शपर्यवैः द्वाभ्यां ज्ञानाभ्यां षट्स्थानपतितः, अवधिज्ञानपर्यवैस्तुल्यः, मनःपर्यवज्ञानपर्यवैः पदस्थानपतितः, त्रभिर्दर्शनैः पट्स्थानपतितः, एवमुत्कृष्टावधिज्ञानी अपि, अजधन्यानुत्कृष्टावधिज्ञानी एवञ्चेव, नवरम् अवगाहनार्थतया चतुःस्थानपतितः, स्वस्थाने पट्स्थानपतितः, यथा अवधिज्ञानी तथा मनःपर्यवाज्ञानी अपि भणितव्यः, हैं (से केणठेणं भंते एवं बुच्चइ-जहण्णोहिनाणीणं मणुस्साणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता ?) हे भगवन् ! किस कारण ऐसा कहा कि जघन्य अवधिज्ञानी मनुष्यों के अनन्त पर्याय हैं (गोयमा ! जहण्णोहिनाणी मणुस्से जहणोहिनाणिस्स मणूसस्स व्वयाए तुल्ले) हे गौतम ! जघन्य अवधिज्ञानी मनुष्य जघन्य अवधिज्ञानी मनुष्य से द्रव्य की दृष्टि से तुल्य हैं (पएसट्टयाए तुल्ले) प्रदेशों की दृष्टि से तल्य है (ओगाहणट्टयाए तिहाणवडिए टिइए तिहाणवडिए) अवगाहना और स्थिति से त्रिस्थानपतित है (वण्णगंधरसफासपज्जवेहिं) वर्ण, गंध, रस स्पर्श के पर्यायों से (दोहिं नाणेहिं) दो ज्ञानों से (छट्ठाणवडिए) षट्स्थापतित है (ओहिनाणपज्जवेहिं तुल्ले) अवधिज्ञान के पर्यायां से तुल्य है (मणपज्जवनाणपज्जवेहिं छटाणपडिए) मनः पर्यवज्ञान के पर्यायों से पटरथानपतित है (तिहिं दंसणेहिं छटाणवडिए) तीन दर्शनों से पटूस्थानपतित (एवं उक्कोसोहिनाणी वि) इसी प्रकार उत्कृष्ट अवधिज्ञानी भी (अजहण्णमणुक्कोसोहिनाणी वुच्चइ-जहण्णोहिनाणीणं मणुस्साणं अणता पज्जवा पण्णत्ता ?) भगवन ! १२ सयु छ घन्य अवधिनानी मनुष्याना मनन्त पर्याय छ (गोयमा ! जहण्णोनाणी मणुस्से जहण्णोहिनाणिस्स मणूसरस व्वट्ठयाए तूल्ले) गौतम । જઘન્ય અવધિજ્ઞાની મનુષ્ય જઘન્ય અવધિજ્ઞાની મનુષ્યથી દ્રવ્યની દૃષ્ટિએ तुक्ष्य छ (पएसट्टयाए तुल्ले) प्रशानी हाट तुक्ष्य छ (ओगाहणयाए तिटाणा वडिए ठिईए तिद्राणवडिए) गवगाहना मन स्थितिथी स्थान पतित छ (चण्ण. गंधरसफासपज्जवहि) पण, ५, २२, २५शना पयायायी (दोहि नाणेहि) मे ज्ञानाथी (छट्ठाणवडिए) ५८२थान पतित छे (ओहिनाणपज्जवहि नुल्ले) अवधि शानना पायाधी तुक्ष्य छे (मणपज्जवनाणपज्जवहिं छहाणवडिए) मन:पय शानना पर्यायाथी ५-स्थान पतित छ (तिहि सणेहिं छटाणवडिए) प्राण शनायी घटस्थान पतित (एवं उकोसोहिनाणी वि) ट भवधिः
SR No.009339
Book TitlePragnapanasutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1196
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size80 MB
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