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________________ ७४२ प्रक्षापनासूत्र वगाहन कानां मनुष्याणामनन्ताः पर्यवाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! जघन्यावगाहनको मनुष्यो जघन्यावगाहनकस्य मनुष्यस्य द्रव्यार्थतया तुल्यः, प्रदेशार्थता तुल्यः, अवगाहनार्थतया तुल्यः, स्थित्या त्रिस्थानपतितः, वर्णगन्धरसस्पर्शपर्यवैः त्रिभिनिः, द्वाभ्यामज्ञानाभ्यां, त्रिभिर्दर्शनैः षट्स्थानपतितः, उत्कृष्टावगाहनकोऽपि एवञ्चैव, नवरं स्थित्या स्याद्धीनः, स्यात्तुल्यः, स्यादभ्यधिकः, यदा हीनः असंख्येयभागहीनः, अथाभ्यधिकः असंख्येयभागाभ्यधिकः, द्वे ज्ञाने, द्वे अज्ञाने, मगुस्सागं अगंता पजवा पण्णत्ता) किस कारण से हे भगवन् ! ऐसा कहा जाता है कि जघन्य अवगाहना वाले मनुष्यों के अनन्त पर्याय कहे हैं ? (गोयमा) हे गौतम ! (जहण्णोगाहणए मणूसे) जघन्य अवगाहना वाला मनुष्य (जहण्णोगाहणगस्स मणूसस्स वठ्ठयाए तुल्ले) जघन्य अवगाहना वाले मनुष्य से द्रव्य की दृष्टि से तुल्य है (पएसट्टयाए तुल्ले) प्रदेशों की दृष्टि से तुल्य हैं (ओगाहणBथाए तुल्ले) अवगाहना की अपेक्षा से तुल्य है (ठईए तिहाणवडिए) स्थिति से त्रिस्थानपतित है (वण्णगंधरसफासपज्जवेहि) वर्ग गंध रस स्पर्श के पर्यायों से (लिहिँ नाणेहिं) तोन ज्ञानों से (दोहिं अन्ना हिं) दो अज्ञानों से (तिहिं दसणेहिं) तीन दर्शनों से (छहाणवडिए) षट्स्थानपतित है (उक्कोसोगाहणए वि एवं चेव) उत्कृष्ट अवगाहना वाला भी इसी प्रकार (नवरं) विशेष (ठिईए सिय हीणे) स्थिति से कदाचित् हीन (सिय तुल्ले) कदाचित् तुल्य (सिय अभहिए) कदाचित् अधिक होता है (जइ) यदि (होणे) हीन है (असखिजभाग કારણે એમ કહેવાય છે કે જઘન્ય અવગાહનાવાળા મનુષ્યના અનન્ત પર્યાય ४ा छ (गोयमा ) 3 गौतम । (जहण्णोगाहणए मणूसे) धन्य माना पाय मनुष्य (जहण्णोगाहणगस्स मणूसस्स व्वट्ठयाए तुल्ले) धन्य अवगाहना पाप मनुष्यथा द्रव्यनीष्टिये तुल्य छ (पएसटुवाए तुल्ले) प्रशानी हष्टियी तुल्य छ (ओगाहणद्वयाए तुल्ले) अगाडनानी अपेक्षा तुल्य छ (ठिईए तिद्वाण वडिए) स्थितिथी त्रिस्थान पतित छे (वण्ण, गंध, रस फासपज्जवेहिं) पणु', १५, २४ २५शना पर्यायाथी (तिहिं नाणेहिं) त्र ज्ञानाथी (दोहिं अन्नाणेहिं) मे अज्ञानाथी (तिहिं दसणेहिं) प शनाथी (छट्ठाणवडिए) षटस्थान पतित छे (उकोसोगाहणए वि एवं चेव) उत्कृष्ट अपमानापा ५ मे १२ (नपर) विशेष (ठिईए सियहीगे) स्थितिथी । पा२ डीन (सिय तुल्ले) अध पा२ तुभ्य (सिय अन्भहि र) ४ाथित् मधि४ थाय छे (जइ) या (हीणे) डीन (असंखिज्जभागहीणे) असभ्यात लागडीन (अह अन्भहिए) २२ गघि
SR No.009339
Book TitlePragnapanasutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1196
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size80 MB
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