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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद ३ स.३३ क्षेत्रानुसारेण हीन्द्रियाद्यरुपबहुत्वम् ३१९ युक्तेः, तेभ्यः 'उडलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणा' ऊर्श्वलोकतिर्यग्लोके तत्प्रतरद्वयवर्तिनो द्वीन्द्रियाः अपर्याप्तकाः असंख्येयगुणा भवन्ति, प्रागुक्तयुक्तेः, तेभ्यः 'तेलोक्के असंखेज्जगुणा' त्रैलोक्ये-लोकत्रयवर्तिनोऽपर्याप्तकद्वीन्द्रियाः असंख्येयगुणा भवन्ति, प्रागुक्तयुक्तेः, तेभ्योऽपि-'अहोलोयतिरियलोए असंखेजगुणा' अधोलोकतिर्यग्लोके-तत्प्रतरद्वयवर्तिनो द्वीन्द्रिया अपर्याप्तकाः असंख्येयगुणा भवन्ति, प्रागुक्तयुक्तेः, तेभ्योऽपि 'अहोलोए संखेज्जगुणा' अधोलोके वर्तमाना द्वीन्द्रिया अपर्याप्तकाः संख्येयगुणा भवन्ति, प्रागुक्तयुक्तेः, तेभ्योऽपि 'तिरियलोए संखेजगुणा' तिर्यग्लोके वर्तमानाः द्वीन्द्रिया अपर्याप्तकाः संख्येयगुणा भवन्ति, प्रागुक्तयुक्तेः । ___ अथ पर्याप्तकद्वीन्द्रियाणामल्पबहुत्वं प्ररूपयति-'खेत्ताणुवाएणं' क्षेत्रानुपातेन-क्षेत्रानुसारेण 'सव्वत्थोवा बेइंदिया पज्जत्तया उड्डलोए' सर्वस्तोका:-सर्वेभ्योजा चुका है। अप्रलोक की अपेक्षा ऊर्ध्वलोक-तिर्य ग्लोक में असंख्यातगुणा हैं। इसका कारण भी पहले कह चुके हैं। ऊर्वलोकतिर्य ग्लोक की अपेक्षा तीन लोकवर्ती अपर्याप्त द्वीन्द्रिय असंख्यातगुणा हैं । इसके विषय में पूर्वोक्त युक्ति ही समझ लेना चाहिए। त्रैलोक्य की अपेक्षा अधोलोक तिर्यग्लोक नामक प्रतरों में असंख्यात गुणा अधिक हैं । अधोलोक-तिर्थ ग्लोक की अपेक्षा अधोलोक में संख्यातगुणा अधिक हैं । अधोलोक की अपेक्षा तिर्य ग्लोक में संख्यात गुणा अधिक हैं। यहां सर्वत्र न्यूनाधिकता का कारण पहले कहे अनुसार जान लेना चाहिए। पर्याप्तक द्वीन्द्रियों का अल्पबहुत्व-क्षेत्र के अनुसार सब से कम पर्याप्तक द्वीन्द्रिय ऊर्ध्वलोक में हैं। उनकी अपेक्षा अवलोक-तिर्यगलोक में असंख्यातगुणा हैं। ऊर्यलोक-तिर्थ ग्लोक की अपेक्षा लोक ઉર્વ લેક તિર્ય કલેક કરતાં ત્રણ લેકવતિ અપર્યાપ્ત હીન્દ્રિય અસ ખ્યાત ગણા છે. તેના સંબંધમાં પૂર્વોક્ત યુક્તિ જ સમજી લેવી. રૈલોકયના કરતાં અધે. લેક તિક નામના પ્રતોમાં અસંખ્યાત ગણા વધારે છે. અલેક તિર્યક લેકના કરતાં અલેકમાં સ હયાત ગણા વધારે છે. અલેક કરતાં તિર્યક લેકમાં સ ખ્યાત વધારે છે અહી બધે ઠેકાણે જૂનાધિકનું કારણ પહેલા કહ્યા પ્રમાણેનું સમજી લેવું પર્યાપ્ત કીન્દ્રિયનું અલ્પબહુત્વ ક્ષેત્રની અપેક્ષાથી સૌથી કમ પર્યાપ્તક કીન્દ્રિય જીવો ઉર્વિલોકમાં છે. તેના કરતાં ઉદ્ઘલેક તિર્યકલેકમાં અસંખ્યાત ગણ છે. ઉર્વક–તિર્થંકલેક
SR No.009339
Book TitlePragnapanasutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1196
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size80 MB
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