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________________ २८ प्रशापनासूत्रे वेदस्तस्य वन्ध एव बन्धकः, तथा सति कति प्रकृती वेद्यमानस्य कति प्रकृतिनां बन्धो भवतीति तत्र प्ररूप्यते अतस्तद्वेदस्य वन्ध इति नाम कृतम्. सप्तविंशतितमं पदं वेद वेदकः २७, कां प्रकृति वेद्यमानः कति प्रकृती दयति इत्यर्थप्रतिपादकत्वात् वेदवेदक इति नाम कृतम्, अष्टाविंशतितम पदम् आहारः २८, आहारप्रतिपादकत्वात्, एकोनत्रिंशत्तमं पदमुपयोगः २९, त्रिंशत्तमं पदं दर्शनता ३०, एकत्रिंशत्तमं पदं संज्ञा ३१,द्वात्रिंशत्तमं पदं संयमः ३२, त्रयस्त्रिंशत्तमं पदम् अवधिः३३,चतुस्त्रिंशत्तमं पदं प्रविचारणा ३४, पञ्चत्रिंशत्तम पदं वेदना ३५, पत्रिंशत्तमं पदं समुद्घातः ३६, तदेवं रीत्या पत्रिंशत्यदीनि प्रकरणानि प्रदर्शितानि; * अथ यथाक्रमं पदगतानि सूत्राणि वक्तव्यानि, तत्र प्रथमपदगतमादिसूत्रमुच्यते-'से कि तं पनवणा ?' इत्यादि र मूलम्-से किं तं पन्नवणा? पन्नवणा दुविहा पण्णत्ता तं जहा-जीवपन्नवणा य अजीवपन्नवणा य ॥सू० १॥ छाया--अथ का सा प्रज्ञापना ? प्रज्ञापना द्विविधा प्रज्ञप्ता-तद्यथा जीवप्रज्ञापना च अजीवप्रज्ञापना च ॥सू० ॥१॥ इसमें यह निरूपण किया गया है कि किस प्रकृति का वेदन करता हुआ जीव कितनी प्रकृतियों का वेदन करता है (२८) आहार (२९) उपयोग (३०) पइयत्ता (३१) संज्ञा (३२) संयम (३३) अवधि (३४) प्रवीचारणा (३५) वेदना और (३६) समुद्धात । - अब क्रमानुसार पद्गत सूत्रो का कथन करना चाहिए। अतः प्रथम पद का आदिः सूत्र कहते हैं ' अन्वयार्थ-(से) अर्थ (किं तं पण्णवणा) प्रज्ञापना क्या है प्रज्ञापना को अर्थ क्या है ? (पण्णवणा) प्रज्ञापना (दुविहा। दो प्रकार की (पण्णत्ता) कही हैं। (तं जहा)-वह इस प्रकार (जीव पण्णवणा) जीव की प्रज्ञापना (य) और (अजीव पण्णवणा) अजीव की प्रज्ञापना (य) और ॥१॥ . 'નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે કે કઈ પ્રકૃતિનુ વેદન કરતે જીવ કેટલી પ્રકૃતિ : ज्यानु वेहन ४२ छ. -(२८) माडा२ (२८) उपयोग (30) ५७यत्ता (3१) सज्ञा-- (३२) सयम (33) मवधि (3४) प्रवीयारणा (34) वेदना (38) समुद्धात - ' હવે ક્રમાનુસાર પઢગત સૂત્રોનું કથન કરવું જોઈએ, એથી પ્રથમ પદનું पीड़ेि सूत्र ४ छे. सपयार्थ-(से) मथ (फि त पण्णवणा) अज्ञापना शुछ-प्रज्ञापनाना मथ छ. (पण्णवणा) अज्ञाना (दुविहा) मे प्रा२नी (पण्णत्ता) डी. छे (त जहा) तमा ४ारे (जीवपण्णवणा) पनी प्रज्ञापन (य) भने (अजीवपण्णवणा) पवनी प्रज्ञापना (य) मने ॥ १ ॥
SR No.009338
Book TitlePragnapanasutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages975
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size63 MB
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