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________________ प्रमेयबोधिनी टीका प्र. पद १ सू.१९ सभेदवनस्पत्तिकायनिरूपणम् २५३ प्रसिद्धः, अरिष्ट:-पिचुमन्दः-एक जातीयनिम्बा, विमीतक:-अक्षः 'बहेरा' इति भापाप्रसिद्धः, हरीतका-कोकणदेशप्रसिद्धः कपायवहुलः 'हरडे' इति भाषाप्रसिद्धः, भल्लातका-वृक्षविशेषः, तस्य मिल्लाफलं लोकप्रसिद्धम्, उम्वेभरिका-लोकप्रसिद्धा६, क्षीरणी धातकी प्रियालाश्च लोकप्रसिद्धाः, 'पूट्यनिंब करंजे सुण्हा तह सीसवाय असणे य । पुंनागनागरुक्खे सीवणि तहा असोगे य । १४॥' पूतिकनिम्बकरजाः श्लक्ष्णा तथा शिंशपा च, असनश्च, पुन्नागनागवृक्षौ श्रीपर्णी तथा अशोकच, ते च पूतिकनिम्बकरज श्लक्ष्णा शिंशपाऽसन पुन्नागनागवृक्षश्रीपर्ण्यशोकाः लोकप्रसिद्धाः, एते सर्वे द्वात्रिंशत्प्रकारका वृक्षा एकास्थिका भवन्ति, तथैव 'जे यावन्ने तहप्पगारा' ये चाप्यन्ये तथाप्रकाराः, एवं विधास्तत्तदेश विशेषभाविनो भवन्ति ते सर्वेऽपि एकास्थिकाः अवसेयाः, 'एएसिं मूला वि असंखेजजीविया' एतेपाम्-पूर्वोक्तानाम् एकास्थिकवृक्षपिशेषाणाम्, मूलान्यपि असंख्येयजीवकानि-असंख्येय प्रत्येक शरीरजीवात्मकानि भवन्ति, तथा-'कंदा वि, खंधा त्रि, तया वि, साला वि, पघाला वि'-पूर्वोक्तैका स्थिकवृक्षाणाम्-कन्दा अपि, पूतिक, निम्ब, करंज, प्लक्ष, शिंशपा, असन, पुन्लाग, नागवृक्ष, श्रोपर्णी, अशोक, (ये सब लोकप्रसिद्ध हैं) ये बत्तीस प्रकार के वृक्ष एकास्थिक होते हैं। तथा इसी प्रकार के अन्य वृक्ष, जो विभिन्न देशों में होते हैं और जिनके फल में एक ही गुठली होती है, उन सबको एकास्थिक ही समझना चाहिए। . इन एकास्थिक वृक्षों के मूल असंख्यात जीवों वाले होते हैं, अर्थात् प्रत्येक मूल में असंख्यात प्रत्येक शरीरी जीव होते हैं । कन्द के नीचे भूमि में अन्दर फैला हुआ भाग खूल कहलाता है और मूल के ऊपर कन्द होता है । यह लोक में प्रसिद्ध है । शाखाओं के स्थूल मूल स्थान स्कंध कहलाते हैं, वल्कल अर्थात् छाल को त्वचा कहते हैं। शाल अर्थात् शाखा, प्रवाल अर्थात् कोंपल । पूर्वोक्त एकास्थिक वृक्षों - આ બત્રીસ જાતના વૃક એકાસ્થિક હોય છે. અને તેવી જાતના બીજા વૃ. જે વિભિન્ન દેશમાં થાય છે, અને જેના ફળમાં એક જ ગોટલી હોય છે. એ બધાને એકાસ્થિ સમજવા જોઈએ. આ એકાસ્થિક વૃક્ષના મૂળ અસંખ્યાત છેવો વળાં હેય છે, અર્થાત પ્રત્યેક મળમાં અસંધ્યાત પ્રત્યેક શગર જીવ હોય છે. કેન્દ્રની નીચે જમીનમાં અંદર ફેલાએલ ભાગ મૂળ કહેવાય છે. અને મૂળના ઉપર ઇન્દ હોય છે. શાખાઓ સ્થલ મળ શાન સકધ કહેવાય છે. વકલ અથત છાલને ત્વચા કહે છે. શાલ અર્થાત્ શાખા. પ્રવાલ અર્થાત્ કુપળ. પૂર્વોક્ત એકાસ્થિક
SR No.009338
Book TitlePragnapanasutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages975
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size63 MB
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