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________________ प्रमेratfart टीका प्र. पद १ सू.११ जीवप्रज्ञापना १६९ समापन्नजीव प्रज्ञापना || अथ कासा परम्परासिद्धासमापन्न जीवप्रज्ञापना ? परम्परासिद्धासंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना अनेकविधा प्रज्ञता, तद्यथा - अप्रथमसमयसिद्धा १, द्विसमयसिद्धार, त्रिसमय सिद्धा ३, चतुःसमयसिद्धा४, याबद् दशसमयसिद्धा १० संख्येयसमयसिद्धा ११, असंख्येयसमय सिद्ध१२, अनन्तसमयसिद्धा १३। सा एपा परम्परासिद्धा संसार समापन्न जीवप्रज्ञापना || सू० ११ || 3 टीका - अथाल्पवक्तव्यतया संसारसमापन्न जीवप्रज्ञापनायाः प्रथमोपात्तत्वेऽपि एक ही समय में अनेक सिद्ध (से तं) यह (अतरसिद्ध असंसार समावन्नजीवपन्नवणा) अनन्तरसिद्ध - मुक्त जीवों की प्ररूपणा है । (से किं तं परं परसिद्ध असंसार समावण्णजीवपन्नवणा ?) परम्परा सिद्ध मुक्त जीवों की प्ररूपणा क्या है ? वह (अशेगविहा) अनेक प्रकार की (पण्णत्ता) कही है (तं जहा) वह इस प्रकार है (अपम समयसिद्धा) अप्रथम समयसिद्ध (दुसमयसिद्धा) हिसमयसिद्ध (तिसमयसिद्धा) त्रिसमयसिद्ध (चउसमयसिद्धो ) चार समय के सिद्ध ( जाव) यावत्-तक (संखिजसमय सिद्धा) संख्यात समय के सिद्ध (असंखिज्ज - समयसिद्धा) असंख्यात समय के सिद्ध (अनंतसमय सिद्धा) अनन्त समय के सिद्ध (सेत्तं परंपरसिद्ध असंसार समावण्णजीवपण्णवणा ) यह परम्पर सिद्ध मुक्त जीवों की प्ररूपणा है (से त्तं असंसार समापणजीवपण्णत्रणा ) यह युक्त जीवों की प्ररूपणा है | ॥ ११ ॥ टीकार्थ-स्सूल पाठ में यद्यपि संसार समापन्न जीवप्रज्ञापना को सिग सिद्ध (एक सिद्धा) : सिद्ध (अणेगसिद्धा) १४ समयमा भने सिद्ध (सेत्तं) या (अगं तरसिद्ध असंसार समाववण्णजीवपण्णवण्णा) मन तरसिद्ध મુક્ત જીવાની પ્રરૂપણા છે. (से किं तं परं परसिद्ध असं सासमावण्ण जीवपन्नत्रणा १) परंपरा सिद्ध भुक्त જીવાની પ્રરૂપણા જી 2 (अणेगविहा) ते ने प्रारनी (पण्णत्ता) ही छे (तं जहा) ते आ रीते छे ( अपढमसन सिद्धा) प्रयभसभय सिद्ध (दुसमसिद्धा) द्विसमय सिद्ध (तिसमग्र सिद्धा) त्रिसमय सिद्ध (चउसमयसिद्धा) यार सभय सिद्धा (जाव) न्या भुधी (असंखिज्जसमय सिद्धा) असण्यात सभय सिद्ध (अनंतसमयसिद्धा) मनत समय सिद्ध (से तं पर परसिद्ध असंसारसमावण्णजीवपण्णवणा) या ५२५ सिद्धभुत योनी समावण्णजीवपण्णत्रणा) २मा भुक्तवोनी प्रथा छे। सू ११। छे ( से तं असंसार ટીકા :–મૂળ પાઠમાં જે કે સંસાર સમાપન્ન જીવ પ્રજ્ઞાપનાને પહેલા प्र० २२
SR No.009338
Book TitlePragnapanasutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages975
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size63 MB
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