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________________ 'प्रमेयद्योतिका टोका प्र.३ ७.३ सू.५४ वनपण्डगत वाप्यादीनां वर्णनम् १५ । ष्टानीति नानामणिमयस्तम्भेषु उपनिविष्टसन्निविष्टानि, 'विविहमुत्ततरोवइया' 'विविधमुक्तान्तरोपचितानि, विविधा-विविधविच्छित्तिकलितामुक्ता-मुक्ताफलानि अन्तरा शब्दोऽत्र वीप्सामपेक्षते तेन अन्तरेति अन्तरा२ मध्ये२ उपचिता आरो· पिता यत्र तानि विविधमुक्तान्तरोपचितानि, 'विविहताराख्वोचिया' विविधतारारूपोपचितानि, विविधैरनेकप्रकारकैस्तारारूपैरुपचितानि तोरणेषु शोभातिशयार्थ तारका बद्धयन्ते इति लोकप्रसिद्धिरिति । 'ईहामियउसमतुरगणरमगरविहगवालगकिण्णररुरुसरभचमरकुंजरवणलय पउमलयभत्तिचित्ता' ईहामृगवृषभतुरंग नरमकरविहगव्यालकिन्नररुरुसरभकुञ्जरवनलतापमलताभक्तिचित्राणि, तत्र ईहा मृगादि पद्मलतान्तानां भक्त्या-विच्छित्त्या चित्र-विचित्रमालेखो येषु तानि तथा, तथा-'खंभुग्गयवइरवेइयापरिगयाभिरामा' स्तम्भोद्गतवज्रवेदिकापरिगताभिरामाणि, स्तम्भोगताभिः-स्तम्भोपरिवर्तिनीभिर्वनरत्नमयीभिर्वेदिकाभिः परिगतानि सन्ति यानि अभिरामाणि-सुन्दराणि तानि तथा, तथा-'विजाहरजमलजुयलजंतजुत्ताविव' विद्याधरयमलयुगलयन्त्रयुक्तानीव, विद्याधरयोयद्यमलंस्थान पर निविष्ट है 'विविह मुत्तंतरोवइया' इनमें अनेक प्रकार की रचानाओं से युक्त बीच बीच में मुक्तामणिलगे हुए है। 'विविह ताराख्वोवचिया विविध अनेक प्रकार के तारारूपों से ये तोरण उपचित -खचित-है शोभा के निमित्त तोरणों में तारकाएं लगाइ जाती है यह वात लोक मे भी देखी जाती है 'इहामिय उसम-तुरग-णर-मगर -विहग-वालग-किपणर-रुरु-सरभ-चमर कुंजर वणलय-पउमलयभत्तिचित्ता' ईहामृग-वृक-वृषभ-वैल-तुरग-घोड़ा-नर-मनुष्य, सकर -विहग-पक्षी-व्याल-श्वापद-भुजग,-किन्नर, रुरु, मृग, सरभ-अष्टा पद कुञ्जर हाथी, वनलता एवं पद्मलता इन सब के उन तोरणों में चित्र बने हुये है 'खंभुग्गयवइरवेझ्या परिगयाभिरामा' इन तोरणों के स्तम्भों के ऊपर वज्रमयीवेदिकाएं है इस कारण ये तोरण बहुत ही २यनामाथी युति क्यमा क्यमा मोतियो दागेसा छे. 'विविह तारारूबोवचिया' અનેક પ્રકારના તારા રૂપથી એ તોરણે રચેલા છે. શેભાને માટે તારણોમાં ताराच्या सावधामा मावे छे. म। मामत से प्रसिद्ध छे. 'इहामिय उसम तुरगणरमगरविहगवालगकिण्णर रुरु सरभ चमर कुंजर वणलय पउमलय भत्तिવિસ્તા” ઈહામૃગ વૃક વૃષભ બળદ તુરગ ઘોડા ભુજગ સર્પ કિન્નર રૂફ મૃગ સરભ અષ્ટાપદ કુંજર હાથી વનલતા અને પદ્મલતા આ બધાના એ તેરણમાં यित्र थिसा-मनासा छे. 'खंभुग्गय वइरवेइया परिगयाभिरामा' मा ताराना થાંભલાઓ ઉપર વજીમયી વેદિકાઓ છે. તેથી એ તેરણે ઘણજ સુંદર લાગે
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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