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________________ १४ जीवामिगमसूत्रे अबलम्व्यन्ते इति अवलम्बनाः, अवतरतामुत्तरतां चावलम्बने हेतुभूताः अवलम्बनवाहातो विनिर्गताः केचिदवयवाः । 'अवलंबणवाहाओ' अवलम्बनवाहा अपि नानामणिमया ज्ञातव्याः त्रिसोपानप्रतिरूपकाणाम् उभयोरुभयोः पार्चयोरवलम्बनाश्रयभूता भित्तयोऽवलम्बनवाहाः प्रोच्यन्ते ॥ 'तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं' तेपां खलु त्रिसोपानप्रतिरूपकाणाम् 'पुरओ पत्तेयं पत्तेयं नोरणा पन्नत्ता' पुरत:-अग्रे प्रत्येकं प्रत्येकं तोरणानि प्रज्ञप्तानि कथितानीति । 'ते णं तोरणा' तानि खलु तोरणानि 'णाणामणिमयखंभेमु उवणिविट्ठसण्णिविट्ठा' नानामणिमयेपु स्तम्भेष उपनिविष्टानि-समीप्येन स्थितानि, तानि च कदाचिच्चलानि स्युरत-आह-संनिविष्टानि-सम्यग्निश्चलतया अवस्थानपरिहारेण निविके स्थानापन्न-कीलों के जैसी सूचियां है 'णाणामणिमया अवलंबणा' इनके उपर चढने उतरने के लिये जो आजू बाजू में लम्बे लम्बे दंडे के जैसे अवलम्पन लगे हुए है वे अवलम्बन यहां नानामणियों के बने हुए है इनका पकड कर ही चढने वाले और उतरनेवाले इनके उपर ढते है, और उपर से नीचे उतरते है । 'अवलंबणबाहाओ' अवचलम्बणवाहा भी अनेक मणियों के बने हुए है। अवलम्बन जिनके सहारे पर रहता है ऐसी दोनों तरफ की जो भित्तियां है उनका नाम अवलम्बनचाहा है 'तेसि तिसोवाणपडिस्वगाणं' उन प्रतिरूपक त्रिसोपानों के 'पुरओ' आगे 'पत्तथ पत्तेय' प्रत्येक प्रत्येक अलग २ --'तोरणा पन्नत्ता' तोरण कहे गये हैं। 'ते णं तोरणा' ये तोरण 'णाणामणिमयखभेलु उपणिचिठ्ठसण्णिविठ्ठा' अनेक मणियों के बने हुए भों के ऊपर पास मे ही स्थित है और मजबूती के साथ ठीक ना स्थानापन्न सामेवी सूथियो य छे. 'णाणामणिमया अवलंबणा' तनी ઉપર ચડવા ઉતરવા માટે આજુ બાજુમાં શરિયાઓના જેવા અવલંબન લાગેલા છે. તે અવલ બને ત્યાં અનેક પ્રકારના મણિયાથી બનેલા છે. તેને પકડીને જ यनाराये। मने तनाराय। तेना ५२ डे उतरे छे.'अवलंबण वाहाओ' म લંબન વાહાપણ અનેક પ્રકારના મણિની બનેલ છે. અવલંબન જેના આધારે રહે છે, એવી બને બાજુની જે ભીતે છે, તેનું નામ ચાવલમ્બન વાહા કહેपाय छे. 'तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं' को प्रति३५४ विसापानीना 'पुरओ' माग पत्तेयं पत्तेयं' ४३ ४२४ २५AN AAL 'तोरणा पन्नत्ता' तोरण। डाय छे. ते ण तोरणा' से तारण 'गाणा मणिमयखंभेसु उपणिविट्ठ संनिविद्वा' भने મણિના બનેલ થાંભલાઓની ઉપર પાંસેજ સ્થિર રહેલા છે. અને મજબૂતિ ही योग्य स्थान ५२ निवाशित छ. 'विवह मुत्तरोवइया' तम माने ५४ानी
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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