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________________ प्रोतिका ठीका प्र. ३ उ. ३.३९ एकोरुकस्थानामाहारादिकम् ६२५ तदा 'रसेणं उपवेए' रसेनातिशायिना मधुरादिनोपपेतं तं युक्तम् ' फासे णं उपवेए' स्पर्शेनातिशायिना मृदुस्निग्धादिनोपपेतम् 'आसाइणिज्जे' आस्वादनीयं सामान्यतः कल्याणभोजनम् 'वीसाइणिज्जे' विस्वादनीयं विशेषतः आस्वादनीयम् 'दीवणिजे ' दीपनीयम् - जठराग्नि प्रज्वाळनम्, 'विहणिज्जे' वृहणीयं धातूपचयकारित्वात् 'दप्पणिज्जे' दर्पणीयं समुत्साह वृद्धिहेतुकत्वात् 'मयणिज्जे' मदनीयंहर्षोत्पादकत्वात् 'सर्विवदियगायपल्हायणिज्जे' सर्वेन्द्रियगात्रप्रल्हादनीयं -आनन्दजनकत्वात, गौतमः पृच्छवि - 'भवेारूवे सिया' भवेदेतावद्रूपः चक्रवत्तिपरमभोजन सहशास्त्राद: पुष्पफलानां स्यात् कदाचित् किमिति प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा' 'हे गौतम! 'णो इमडे समहे' नायमर्थः समर्थः किन्तु 'तेसि णं पुप्फफळाणं तेषां पुष्पफलानाम् 'एतो इतराए चेत्र जाव आसार णं पण्णत्ते' इतः परम धादि रूप से युक्त जैसा होता है वह 'आसायणिज्जे' आस्वादनीय होता है, 'विसावणिज्जे' विशेष रूप से स्वाद के योग्य होता है, 'दीवणिज्जे ' दीपनीय होता है-जठराग्निकावर्धक होता है 'विए णिज्जे ' वृहणीय होता है-धातु आदि का वृद्धिकारक होता है, 'दप्पणिज्जे' दर्पणीय होता है - उत्साह आदि की वृद्धि करने वाला होता है 'मयणिज्जे' मदनीय होता है- हर्षोत्पादक होता है, 'सबिंदियणापपल्हायणिज्जे' और समस्त इन्द्रियों को एवं शरीर को प्रह्लादनीय - आनन्दवधक होता है श्रीगौतमस्वामीकहते हैं तो क्या है भदन्त ! 'भवेद्यावे सिया' इसी तरह का स्वाद वहां के पुष्प फलों का होता है ? उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं णो ण समट्टे' हे गौतम ! इस कथन से यह अर्थ समर्थ नहीं होता है- क्योंकि- 'तेसिणं पुष्कफलाणं एतो इत्तराए चेत्र जाव કલ્યાણ પ્રવર ભેાજન કહેવાય છે તે વર્ણની અપેક્ષાએ શુકવ વણથી ગન્ધની અપેક્ષાથી સુરભિ ગધથી અર્થાત્ સુગ ંધથી રસની અપેક્ષાએ મધુર વિગેરે રસથી मने स्पर्शनी अपेक्षा मे भृटु स्निग्ध विगेरे पशुाथी युक्त होय है. 'आता यणिज्जे' भारवाहनीय होय छे, वीसायणिज्जे' विशेष ३पथी वाह वाणी होय है, 'दीवणिज्जे दीपनीय होय छे. अर्थात् राज्जिने वधारतार होय हे. 'वि हूणिज्जे' शृंडीय धातु विगेरेने वधारनार होय छे, भेटते हे शक्ति वर्ध હાય છે ‘વૃઘ્ધનિને' દણીય હાય છે. ઉત્સાહ વિગેરેને વધારનાર હોય છે. 'मयणिज्जे' भहनीय होय छे. उषेरपा होय छे. 'सव्त्रि दियगाय पल्हा यणिज्जे' भने सधणी है द्रियाने माने शरीरने असाहनीय मानं १६४ होय छे. श्रीगोतमस्वाभी डे छे से लगवन् 'भवेया रुवेसिया' तो शु ત્યાંના પુષ્પ અને કળે ને સ્વાદ આ પ્રકારના હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री पुडे हे } 'जो इण्डे समट्टे' हे गौतम! या स्थनथी से अर्थ समर्थित मी० ७५
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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