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________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.२ स.२० नारकाणां क्षुत्पिपासास्वरूपम् २८१ पङ्कपमा पञ्चमी धूमममा पृथिवीष्वपि नारकाणामतिशयितवेदना वेदकत्वं ज्ञातव्यमिति भावः । 'छ? सचमासु णं पुढचीनु' षष्ठ सप्तम्यां पुनः पृथिव्योः तम:प्रभा तमस्तमामभयोः 'नेरइया' नैरयिकाः 'बहुमहंताई वहुनि-अनेकानि महान्ति 'लोहिय कुंथुरूबाई' लोहित कुन्थुरूपाणि रक्तवर्णानि कुन्थुजातिक जीवानि 'वहरामयतुंडाइ” वन्नमय तुण्डानि-वज्र पस्कठोर तीक्ष्ण मुखानि गोमय कीडलमाणाई' गोमय कीटसमानानि नारशाः 'बिउति' बिकुन्ति-वैकिंच क्रियया निष्पादयन्ति 'विडिया रिपुर्विवा 'अन्नसन्मरस' अन्योऽन्यक्ष्य-पदस्परस्य 'कार्य' कार्य-शरीरम् 'समतुरंगेगाणा' समतुशायमाणा - तुरना पक्ष याच रन्त:-अश्वा इवान्योन्य मारोहन्त इव इत्यर्थः 'खायमाणा खायमाणा' खादयन् । खादयन्त एकेऽन्यान् 'सयपोराग किमियावित्र' शतपर्वकमन्य इज वंश कृस्य च इसी तरह नारक जीव शर्कशपमा, बालुकाप्रमा, पंकप्रभा और धूमप्रभा में भी अतिशयित वेदना को भोगते हैं । 'छहसतम्बाखु णं पुढवीसु' छठी और सातवी पृथवी में 'नेरहया नरथिक जीव 'बहुमहं ताई लोहिय कुंथुरूवाइं पथराषय तुडाई अनेक बडे २, रक्तवर्णवाले कुन्थु जीवों के रूपों के जैसे-लालवर्ण के और बयार जयतुंडाई' जिनका मुख वज्र का ही मानों बना हुआ सा है ऐसे शरीर मा कि जो 'गोमय कीडन्तमाणाई' गाय के गोबर के कीडे के जेले होते है विकुर्वणा करते हैं विउव्दिन्ता' शरीरों की विफुर्वणा करके अन्नमनस्स कायं' फिर परस्पर में एक दूसरे के शरीर पर 'लमातुरगेमाणा' घोडे की तरह सवार होकर अर्थात् चढकर 'खाशमाणा २' उसे परस्पर में पारंवार काटते हैं-बटका भरते है 'सयपोराकिभियाइच एवं शतવાલુકાપ્રભા, પંકપ્રભા, અને ધૂમપ્રભા પૃથ્વીમાં પણ અત્યંત વેદના ભેગવતા २७ छ. 'छटुसत्तमासु णं पुढवीसु' ७२४ी मने सातभी पृथ्वीमा 'नेरइया' नैरयिर ७। 'बहुमताई लोहियकुंथुरूवाई वयरामयतुडाइ” भने मोटा मोटा सता ३ाना थुनामना वान। ३।२uary नाम 'वयरामयतुडाई भाना नुभुम १०११ मनछे, सेवा शरीशनी है 'गोमयकी समाणाई' ગાયના છાણના કીડા જેવા હોય છે. તેવા જીવોની વિકુબા કરે છે, 'विउव्वित्ता' तवा शरीरानी वियरीन 'अन्न मन्नस्स कायं त पछी ५२ २५२मां से मीलना शरी२ ५२ 'समतुर गेमाणा' घानी म समा२ २४२ मयात यढी 'खायमाणा खायमाणा' ५२२५२ तेने पार वा२ ४२3 छे. र्थात् म मरेछे. 'सयपोराकिमियाइव' मन से माही पाणी शेडनाहीनी भा३४ 'चालेमाणा चालेमाणा' म १२ ने म२ सनसनाट ४२ता थपेसी तय जी०३६
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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