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________________ भगवतीने पापं कर्म प्रास्थापयन् समकं न्यस्थापयन् केचन सलेश्यानन्तरोपपन्ननारकाः पापं कर्म समकं प्रास्थापयन् विपमकमेव न्यस्थापयन्, एतदेव ‘एवं चेव' इति प्रकरणेन कथितमिति । 'एवं जात्र अणागारोवउत्ता' एवं लेश्यापदवदेव यावदनाकारोपयुक्ताः, अत्र यावत्पदेन कृष्णलेश्यापद्त आरभ्य साकारोपयोगपदपर्यन्तानां ग्रहणं भवति तथा च कृष्णपाक्षिकानन्तरोपपन्नकनारकादारभ्य अनाकारोपयुक्त पर्यन्तनारकविषये पापकर्मणः प्रस्थापने निष्ठापने च समानत्र रीति ज्ञेयेतिभावः । 'एवं असुरकुमाराणं' एवम्-नारकवदेव असुरकुमाराणामपि सर्वपदेषु एवमेव प्रक्रिया ज्ञातव्या । 'एवं जाच वेमाणियाणं' एवम्-असुरकुमारचदेव यावद्वैमानिकानाम्-चैमानिकपर्यन्तानाम् 'नवरं जं जस्स अत्थि तं तस्स फरते हैं और उलका विनाश भिन्न भिन्न काल में करते हैं इण्यादि, 'एवंजाब अणागारोवउत्ता' लेयापद के जैसे ही यावत अनाकारो. पयुक्त पद तक भी यही कथन का क्रम जानना चाहिये, यहां यावत्पद से नरक योग्य कृष्णलेशका पद से प्रारम्भ कर साकारोपयोग पद तक के नैरयिकों का ग्रहण हुआ है-तथा च-कृष्णलेश्य अनन्तरोपपन्नक नारक से लेकर अनाकारोपयोगयुक्त तक के पद वाले नारकों के विषय में पापकर्म के भोगने में और उसके विनाश दारने में समान रीति जाननी चाहिये, “एवं असुरकुमाराणं' नारक की जैसी रीति ही असुरकुमारों के समस्त पदों में भी समझनी चाहिये, 'एवं जाव वेमाणियाणं' और इसी प्रकार की रीति यावत् वैमानिकों के विषय में पापकर्मों के भोगने में और उसके विनाश करने में जाननी चाहिये, परन्तु इसमें इतनी विशेपत्तामा ध्यान रखना चाहिये कि जो लेश्यादिक जिसके हो वही उसको कहना चाहिये। दण्डकों को रचना उन-उन पदों અનંતપપનક નરયિકે એવા હોય છે કે જેઓ પાપકર્મ ભેગવવાને પ્રારંભ એક સાથે કરે છે, અને તેને વિનાશ જુદા જુદા સમયમાં કરે છે. ઈત્યાદિ 'एव जाव अणागारांवउत्ता' २०५हना ४थन प्रमाणे यावत् मनाકારપગવાળા પદ સુધી આ પ્રમાણે જ કથનનો ક્રમ સમજવો જોઈએ, અહીંયા યાવત્પદથી કૃષ્ણલેશ્યાપદથી આર ભીને સાકારોપયોગ પર સધીના નરયિકે ગ્રહણ કરાયા છે. તથા-કૃષ્ણ પાક્ષિક અને તાપનક નારકથી લઈને અનાકાપયુક્ત સુધીના પદવાળા નારકેના, વિષયમાં પાપકર્મને ભેગવવામાં અને તેને વિનાશ કરવામાં સરખી રીતે સમજવા. 'एव असुर कुमारणं' ना२४ना थन प्रमाणे ०८ मसु२४साना सा भां ५५ समा'एवं जाव वेमाणियाणं' मा प्रमाणुनीशत यावत् वैमानि। ના સંબંધમાં પાપકર્મ ભેગવવામાં અને તેનો વિનાશ કરવામાં સમજવી,
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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