SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 713
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०४० अ. श.१५ अभव० संक्षिपञ्चेन्द्रियजीन०६८९ वा जाव सुकलेस्सा वा' इमे अभवसिद्धिकाः कृष्णलेश्या भवन्ति यापत् शुक्ला लेश्या वा भवन्ति यावत् पदेन नीलकापोततेजःपद्मलेश्यानां संग्रहो भवतीति । 'नो सम्मट्ठिी' इमे अभवसिद्धिका नो सम्यग्दृष्टयो भवन्ति किन्तु 'मिच्छादिही' 'मिथ्यादृष्टयोः भवन्ति 'नो सम्मामिच्छादिट्ठी' नो न वा सम्यगमिश्याप्टयो मिश्रष्टयो भवन्तीति । 'नो नाणी अन्नाणी' नो ज्ञानिनो भवन्ति, किन्तु अज्ञानिनः तत्रापि नियमतो व्यज्ञानिनः मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनो विभङ्गज्ञानिन श्रेति । 'एवं जहा कण्णलेस्ससए' एवं यथा कृष्णलश्यशतके कथित तथैवात्रापि एतस्यैव द्वितीयशते ज्ञातव्यमिति । कृष्णलेश्यशतापेक्षया यद्वैलक्षण्यं तद्वक्ति 'नवरं नो विरया अविरया नो विरयाविश्या, नवर विशेपस्तावदयम्-इमे अभवघा' 'ये अभवसिद्धिक जीव कृष्णलेश्यावाले होते हैं यावत् शुक्ललेल्यावाले होते हैं। यहां यावत्पद से 'नील, कापोत तेजः और पदमलेश्याओं का संग्रह हुआ है । 'नो सम्मद्दिष्टि 'ये सम्यग्दृष्टि नहीं होते हैं। किन्तु-मिच्छादिष्टि' मिथ्यादृष्टि ही होते हैं। 'नो सम्मामिच्छा. दिट्टी' ये मिश्रदृष्टि भी नहीं होते हैं । 'नो नाणी, अन्नाणी' ये ज्ञानी नहीं होते हैं अज्ञानी ही होते हैं। अज्ञान में इनके तीन अज्ञान होते है-मति अज्ञान श्रुत अज्ञान और विभंगज्ञान ये तीन अज्ञान होते हैं 'एवं जहा कण्हलेस्सलए' इस प्रकार से जैसा कृष्णलेश्य शतक में कहा गया है वैसा ही यहां पर समझना चाहिये । कृष्णलेश्यशत इसी ४० वे शतकका द्वितीय शत है। 'नवरं नो विरया अविरया, नो विरया विरया' कृष्णलेश्य शतकी अपेक्षा यहां जो अन्तर आता है છ કૃષ્ણલેશ્યાવાળા હોય છે. નીલલેશ્યાવાળા હોય છે કાપતલેશ્યાવાળા હોય છે. તેજલેશ્યાવાળા હોય છે. અને પહેલેશ્યાવાળા હોય છે તથા શુકલवेश्यावा हाय छे. 'नो सम्मदिट्ठी' मा सभ्याट खाता नथी. परंतु 'मिच्छादिद्वी' मिथ्याल्टिा डाय छे. 'नो सम्मामिच्छादिद्वी' तया भिटिवाणा पहाता नथी. 'नो नाणी अन्नाणी' तो नानी प साता નથી. અજ્ઞાની હોય છે, તેઓને અજ્ઞાનમાં મતિઅજ્ઞાન અને શ્રુતજ્ઞાન એ બે में अज्ञान हाय छ तमन वि अशान छातु नथी 'एवं जहा हलेससए' એજ પ્રમાણે કૃણા શતકમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે. એ જ પ્રમાણે અહીયાં પણ સમજવું કૃષ્ણલેશ્યા શતક આ ૪૦ ચાળીસમા શતકનું ll शत छे. 'नवरं नो विरया अविरया नो विरयाविरया' वेश्याशतनी भ०८६
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy