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________________ भगवती ટ या तृतीयचतुर्थादीनां परिपाटी क्रिया कथिता 'तब हं पि अभंगे तथैव तेनैव रूपेण इहापि अष्टाविंशतितमगतकेऽपि तृतीयानुदेशकोक्तेषु अष्टसु भने परिपाटी नेतव्या ज्ञातव्येति । पूर्वशतकापेक्षया 'नवरं जाणियन्त्र' नवर केवलं वैलक्षण्यं ज्ञातव्यम् किं तदित्याह - 'जं जस्स अस्थि तं तस्स भाणियन्त्र' जाव अचरमुदेसो' यत् लेश्यादि यादृशं यस्य जीवस्य नारकादेर्भवति तदेव तस्य - जीवस्य भणितव्यं नान्यमभ्यस्य कियत्पर्यन्तमित्याह - यावत् अवरमोद्देशः - अच रमोद्देशकान्तम् अनन्तरोपपन्नकः परस्परोपपन्नकानन्तरावगाढपरम्परावगाढानन्तराहारकपरम्पराहारकानन्तर पर्याप्तपरम्परपर्याप्तचरमपर्यन्तानां नवानामुद्देश. कानां संग्रहो भवतीति, 'सव्वे वि एए एक्कारस उद्देसगा' सर्वेऽपि एते सामान्योउद्देशकों की परिपाटी प्रक्रिया की गई है 'तहेच' उसी प्रकार से 'इपि असु भंगेसु पन्त्रा' यहां अठाइसवें शतक में भी तृतीयादि उद्देशकों में उक्त आठ भंगो में परिपाटी जाननी चाहिये, यहां पूर्व की अपेक्षा यदि भिन्नता है तो वह 'नवरं जाणिकचं जे जस्स अस्थि तं तस्स भाणियन्त्र जाब अचरमुद्देखो' हम सूत्रपाठ द्वारा प्रगट की गई है, अर्थात् जो जैसी लेइयादिक जिस नारकादि जीव के हो वह वैसी इयादि उस नरकादि जीव को कहनी चाहिये - अन्य की अन्य को नहीं कहनी चाहिये, और ऐसा कथन यावत् अचरम उद्देशक तक करना चाहिये, यहाँ याचत् शब्द से- 'अनन्तरोपपन्नक परम्परोपपन्नक, अनन्तरावगाढ, परम्परावगाढ, अनन्तराहारक, परम्पराहारक, अनन्तरपर्याप्त, परम्परपर्याप्त और चरम इन नव उद्देशकों का संग्रह हुआ 'सव्वे वि एए एक्कारस उद्देगा' सामान्य उद्देशक से लेकर अचरम 'योनी - परिपाटी अनिया वामां आवे छे, 'तहेव' से प्रमाणे 'इहंपि अट्ठसु भगेसु यन्त्रा' मा अध्यावीसभा शतम्भां पृथु त्रीन विगेरे उद्देशाએમાં ઉક્ત આઠ ભંગામાં પ્રક્રિયા સમજવી અહિયાં પહેલાં કરતાં જો કાંઈ '२२ छे, ते नवर' जाणियव्व' ज जस्स अत्थि तं तस्स भाणियव्व जाव - अचरमुद्देसो' मा सूत्रपाठ द्वारा अगर रेस छे. अर्थात् ने नैरने के જે લેશ્યા વિગેરે કહેલ હોય તેને તેજ પ્રમાણેની લશ્યા વિગેરે કહેવા જોઈએ ખીજાની લેશ્યા વિગેરે બીજાને કહેવાના નથી. અને આ પ્રમાણેનું કથન અચરમના ઉદ્દેશા સુધી કહેવુ જોઇએ. અહિયાં યાવત્ શબ્દથી અનન્તરે પપન્નક, ५२'थरेपियन्न}, अनंतरावगाढ, पर परावगाढ अनंतराशर, परपराहार, અનન્તર પર્યાપ્ત, પર પરપર્યાપ્ત અને ચરમ પર્યાપ્ત આ નવ ઉદ્દેશાઓ अंडषु ४२राया छे. 'सव्वे वि एए एकारस उद्देसगा' लवथी सर्धने थरम उद्देशा
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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