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________________ अमेयर्चान्द्रका टीका श०३४ अ. शं०१ उ०३ परम्परोपनकैकेन्द्रियनिरूपणम् ४६९ समुत्पधमानानामेसामयिको विग्रहो न भवति अत्तस्तेषां द्वयादि चतुःसामयिको विग्रहो भवति, उक्तं च प्रथमोद्देशकान्ते-'उत्तरिल्ले समोहयाणं परचस्थिमिल्ले उववज्जमाणाणं एगसमइओ विरगहो नत्थि' इत्यन्तं वाच्यम् 'कर्हि णं भंते ! परंपरोववन्नग वायरपुढवीकाइयाणं ठाणा पन्लचा कुत्र खलु भदन्त । परम्परोपपन्नक बादरपृथिवोकायिकानां स्थानानि प्रज्ञप्तानि-कथितानीति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा ! हे गौतम ! 'सट्टाणेणं अम्ल पुढवीसु' स्वस्थानेन यत्र परम्परोपपन्नका जीवा आसते वद स्वस्थानम् स्थानापेक्षया अप्टासु रत्नप्रभा दीपत्माग्भारा पृथिवी पर्यन्तेषु परम्परोपपन्नक वादरपृथिवीकायिकैकेन्द्रियजीवानां स्थानानि प्रज्ञप्तानीत्युत्तरम् । एवं एएणं अभिलावणं जहा पहमे उद्देसए जाव तुल्लछिईय त्ति' एवमेतेन पूर्वोक्तेनाभिलापेन आलाएकमकारेण यथैव चरमान्त में समुद्घात करके पश्चिम चरमान्त में उत्पन्न होनेवालों को एकसमयका विग्रह नहीं होता है, यहां तक कहना चाहिये इस संबन्ध में इसी शतक के प्रथम उद्देशक के अन्त में भगवान ने कहा है-'उत्तरिल्ले समोहयाणं पञ्चस्थिमिल्ले उनवजमाणाणं एगलमहो विगहो नस्थि' 'कहिणं भंते ! पर परोवनगा पायर पुढवीकाइयाणं ठाणा पन्नत्ता' हे भदन्त ! परम्परोपपन्नक चादर पृथिवीकायिक के स्थान कहां पर कहे गये हैं ? उत्तर में प्रशुश्री कहते है-'गोयामा ! सट्टाणेणं अस्तु पुढवीर' हे गौतम ! परम्परोपपन्तक बादर पृथिवी कायिकों के स्थान स्वस्थानकी अपेक्षासे आठ पृथिचियों में कहे गये हैं वे आठ पृथिवीयां रत्नप्रभाधिवी से लेकर ईषत्प्रारभारा पृथिवी तक हैं। 'एवं एएणं अभिलावेणं जहा पढमे उद्देसए जाव तुल्लट्ठियत्ति' इसी प्रकार से इस अभिलाप द्वारा इनके सम्बन्ध का सब प्रश्नोत्तर रूप कथन यावत् तुल्य स्थितिबाले परम्परोरपडसा उद्देशान मतमा लगाने घुछे है-'उत्तरिल्ले समोहयाण पच्चस्थिमिल्ले उववज्जमाणा ण एगसयहओ विगहों नस्थि । ___'कहि ण भंवे ! परंपरोववन्नगा वायरपुढवीकाइयाण ठाणा पण्णत्ता' હે ભગવન પરંપપપનક બાદર પૃથ્વીકાચિકેના સ્થાને ક્યા કહ્યા છે? मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वामीन ४३ छे -'गोयमा । सदाणे अदृसु पुढवीसु' हे गीतम! ५२ ५५५न्न ५२ पृथ्वीयिटना स्थानी આઠ પૃથ્વીમાં કહ્યા છે તે આ પૃથ્વી રત્નપ્રભા પૃથ્વીથી લઈને षत प्राभा२। पृथ्वी सुधीनी मा४ पृथ्वीय। छ. 'एवं एएण अभिलावेण' जा पढमे उद्देसए जाव तुल्लदिइयत्ति' से प्रभाये या मलितापामा विषय સંબંધમાં બીજા સઘળા પ્રશ્નોત્તર રૂપ કયન યાવત્ કેટલાક તુલ્ય સ્થિતિવાળા
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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