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________________ भगवतीले धष्ट ८, श्रोत्रेन्द्रियाधाचतवः ४, सी पुरुषवध्यरूपे द्वे २, एवं चतुर्दश कर्मप्रकृती वैदयन्तीति तात्पयर्थिः । क्रियत्पर्यन्त में केन्द्रियशतकमिहाध्येतव्यं तत्राह-'जाव' इत्यादि । 'जाय अणंतरोदवानमा वणस्सइकाइया' यावदनन्तरोपपन्नका वन. स्पतिकायिकाः अकायिकादारभ्य वनस्पतिकायिकान्ताः सर्वेऽपि अनन्तरोपपन्नकै केन्द्रिया इत्थमेर पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः इत्थमेव कर्मप्रकृती बंधनन्ति वेदयन्ति चेति भावः। 'अणंनरोववन्नग एगिदियाणं भंते ! कओ उजवज्जति' अनन्तरोपप के न्द्र याः खलु भदन्त ! कुत्त:-कस्मात् स्थानविशेषादागत्योत्पद्यन्ते ? इत्युत्पादविषयका प्रश्नः उत्तरमाह-'जहेव ओहिओ उद्देसो भणिओ तहेव' यथैव औधिक उद्देशको भणितः, अस्यैव चतुस्त्रिंशत्तमस्य शतकस्य पथमे एकेन्द्रियशते बन्ध होता है ऐसा कहा गया है। बेदन सूत्र में ये चौदह प्रकार की कर्मप्रकृतियों का वेदन फरते ऐसा कहा गया है। वे चौदह प्रकृतियां इस प्रकार से है-ज्ञानाबरणीयादिक ८ श्रोगेन्द्रियावरण ४ स्त्रीपुरुषावरणरूप दो २। 'जाब अणंतरोववन्नगा वणस्लइकाइया' इसी प्रकार का कधन यावत् अनन्तरोपपन्नक जनस्पतिमाथि तक जानना चाहिये । अर्थात् 'अपसायिक से लेकर वनस्पतिकाधिक तक सब अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव जो कि पांच प्रकार के कहे गये हैं इसी प्रकारले कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते है और इसी प्रकारसे वे उनका वेदन करते है। ___'अणंतरोवन्नण एगिदियाण भंते ! को उधवज्जति' हे भदन्त । अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय जीव कहां से आकर के उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'जय ओहिओ उद्देसओ भणिो तहेव' 'हे गौतम ! जैमा सामान्य उद्देशक में कहा गया है वैसाही यहां पर भी વેદન કરે છે. એટલે કે જ્ઞાનાવરણીય વિગેરે આઠ ૮ એન્દ્રિયાવરણ ૪ તથા श्रीवहा१२ १३ ५३५३४ १२५ १४ 'जाव अणंतरोववन्नगा वणस्सइकाइया' આજ પ્રમાણેનું કથન યાવત્ અનંતરે પનિક વનસ્પતિક થિકના કથન સુધી સમજવું. અર્થાત્ અપૂકાયિકથી લઈને વનસ્પતિકાયિક સુધી સઘળા અનંતપપનક એકેન્દ્રિય છે કે જે પાંચ પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે, તે બધા એજ પ્રમાણે કર્મપ્રકૃતિનો બંધ કરે છે. અને એ જ પ્રમાણે તેઓ તેનુ વેદન કરે છે. 'अणंतरोववन्नग एगिदियाण भते ! कओ उववज्जति' मगवन् मनत. પપનક એકેન્દ્રિય છે કયાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वामीन ४ छ -'जहेव ओहिओ उदेसो भणियों
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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