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________________ भगवतीक्ष ११० क्रियावादिनः खलु भदन्त ! 'पंचिंदियतिरिक्खजोणिया' पञ्चेन्द्रियतिर्थग्योनिका जीवाः 'कि नेरइयाउयं पकरें ति पुच्छा' किं नैरयिकायुक प्रकुर्वन्ति अथवा तिय ग्योनिकायुष्क प्रकुर्वन्ति अथवा मनुष्यायुष्क प्रकुर्वन्ति देवायुष्क वा प्रकुर्वतीति प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते। भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहा मणपज्जवणाणी' यथा मनापर्यवज्ञानिना मनःपर्यवज्ञानिवदेव क्रियावादि पञ्चेन्द्रियतियग्योनिकाः न नारकतिर्यग्योनिकमनुष्यायुष्कं प्रकुर्वन्ति किन्तु केवलं देवायुष्कमेव प्रकुर्वन्तीति भावः । 'अकिरियावाई अन्नाणियवाई वेणइयवाई य चउनिहं पि पकाति' अक्रियावादिनोऽज्ञानिकवादिनो वैनयिकवादिनश्च पश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका नारकायुष्कतिर्यग्योनिकायुष्क मनुष्यायुष्क देवायुष्क चतु. नहीं होता है। किरियावाईणं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया' हे भदन्त ! क्रियावादी पंचेन्द्रियतिर्यश्च जीव 'किं नेरच्याउयं पकरेंति पुच्छा' क्या नैरथिक आयुका बंध करते हैं ? अथवा-तिर्यगायुका वंध करते हैं ? अयवा-मनुष्यायुका बंध करते हैं ? अथवा-देवायुष्क मोबंध करते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! जहा मणपज्जबनाणी' हे गौतम! मनापर्ययज्ञानी के जैसे क्रियावादी पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च न नारकायु का बंध करते हैं, न तिर्यगायु का बंध करते हैं, न मनुष्यायु का बंध करते हैं, किंतु वे केवल एक देवायु का ही यध करते हैं। 'अकिरियाबाई अन्नाणियवाई वेणइयवाईय चउन्विहं पि पकरेंति' अक्रियावादी, अज्ञानिकवादी और वैनयिकवादी पञ्चेन्द्रिय तिर्य ग्यौनिक जीव चारों प्रकार की आयुओं का पंध करते हैं। नारહિય છે. તેથી અપર્યાપ્ત અવસ્થાને કાળ અત્યત થોડો હોવાથી તેને અકિયાવાદી અને અજ્ઞાનવાદી પણામાં કેઈપણ આયુને બંધ હેત નથી. किरियावाई णं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया' ७ मगवन् लिया. वादी ५येन्द्रिय तियय ७५ 'कि नेरइयाउयं पकरे ति पुच्छा' शुतमा યિક આયુને બંધ કરે છે? અથવા મનુષ્ય અને બંધ કરે છે? અથવા दुव मायुन। ५५ रे छ ? २मा प्रशना उत्तRi 'प्रसुश्री ४ छ है-'गोयमा! नही मणपज्जवनाणी' 3 गीतम ! मन:पय ज्ञानीना ४थन प्रमाणे यापही ચેન્દ્રિયતિર્યય નારકની આયુને બંધ કરતા નથી. તિર્યંચની આયુને પણ બંધ કરતા નથી. મનુષ્ય આયુનો બંધ કરતા નથી. પરંતુ તેઓ કેવળ એક દેવ આયુને જ બંધ કરે છે, , 'अकिरियावाई, अन्नाणियवाई वेणईयवाई य चम्विह पि पकरेंति' मस्यिाવાહી. અજ્ઞાનવાદી અને વૈયિકવાદી પંચેન્દ્રિય તિર્યચનિવાળા જ ચારે
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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