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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०३० उ.१ सू०२ आयुर्वन्धनिरूपणम् कुर्वन्ति न वा मनुष्यायुष्कं कुर्वन्ति किन्तु वैमानिकदेवमात्रसम्बन्ध्यायुषो बन्धं कुर्वन्तीति भावः । 'सवेदगा जाव नपुंमगवेयगा जहा सलेस्सा' सवेदका यावद नपुंसकवेदका यथा सलेश्याः सलेश्यजीववदेव सवेदकाः पुरुषवेदकाः, स्त्रीवेदकाः नपुमकवेदकाश्च नारकायुरपि कुर्वन्ति तिर्यग्योनिकायुरपि कुर्वन्ति मनुष्यायुरोप कुर्वन्ति देवायुरपि कुर्वन्तीति भावः । 'अवेदगा जहा अलेस्सा' अवेदका सामा न्यतो वेदरहिता जीवाः अलेश्यजीश्वदेव न नारकायुकं कुर्वन्ति न वा तिर्यग्योनिकायुष्क कुर्वन्ति न वा मनुष्यायुष्क कुर्वन्ति न वा देशयुष्क वनन्तीति भावः । 'सकसाई जाव लोमकलाई जहा सलेस्सा' सहपायिनो यावत् लोभकषायिनो यथा सले श्याः यावत्पदेन क्रोधमानमायाकपायवतां ग्रहणं भवति तथा च सकपायिणो जीवा क्रोधमानमायालोभरपायिणश्च चत्वार्यपि नारकतियग्मनुष्यदेवायूंषि कुर्वन्तीति भावः । 'अकसाई जहा अलेस्सा' अपायिनो यथा अलेश्या: हैं। न नैरथिकायु का वे बन्ध करते हैं, न तिर्थ गायुला वे बन्ध करते हैं और मनुष्यायुका भी वे बन्ध नहीं करते हैं। 'सवेदगा जाव नपुंलगवेदगा जहा सलेम्सा' सलेश्य जीवों के जैसे सवेदक जीव यावत् नपुंसकवेदक जीव नैरयिक आयुका भी धन्ध करते हैं, तिर्यगायुका भी बन्ध करते हैं, मनुष्यायका भी बध करते हैं और देवायुका भी बन्ध करते हैं। 'अवेदगा जहा अलेस्ला' अवेदक जीव अलेश्य जीवों के जैसे किसी भी आयका बन्ध नहीं करते हैं। 'सकताई जाव लोभकसाई जहा सलेस्सा' सलेश्य जीवों के जैसे सकषायी जीव यावत् लोभकषायी जीव चारों आयुओं का बन्ध करता हैं। यहां यावत्पद से क्रोध कषायी, मानकषायी, और मायाकषायी' इन तीन पदों का ग्रहण हुआ है । 'अकसाई जहा अलेस्ला' अलेश्य जीवों के जैले अकषायी કરે છે. તેઓ નરયિક આયો બાધ કરતા નથી. તિર્યંચ આયુને બંધકરતા नथी. मने मनुष्य मायुन ५ ५५ २ता नथी, 'सवेदगा जाव नपुंसगवेदगा' जहा सलेस्मा' सेश्यावासा वाना थन प्रभारी सह । यावत् नस। દવાળા જીવ નરયિક આયુને પણ બંધ કરે છે, તિર્યંચ આયુને પણ બંધ કરે છે. મનુષ્ય આયુનો પણ બંધ કરે છે અને દેવું આયુને પણ બંધ 3रे छे. 'अवेदगा जहा अलेस्सा' मवई श्या विनाना पोना थन प्रमाण पण सायना १५ ४२ता नथी. 'सकमाई जाव लोभकसाई जहा सलेस्सा' सेश्यावा ना ४थन प्रभाये ४ायnt wो यावत् કોધ કષાય માનકષાય માયાકષાય અને લેભકષાયવાળા જીવો ચારે પ્રકારના આયુષ્યને બંધ કરે છે, અહિયાં યાત્મદથી “ફોધકષાયી, માનકષાયી અને
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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