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________________ ८८ भगवतीसूत्रे न सम्भवति सिद्धिगमनयोग्यत्वात् 'कण्डपक्खिया णं भंबे ! जीवा अकिरियाबाई किं नेरइयाउयं पुच्छा' कृष्णपाक्षिकाः खल्ल भदन्त ! जीवा अक्रियावादिनो नैरयिकायुकं प्रकुर्वन्ति अथवा तिर्यग्योनिका युष्कं प्रकुर्वन्ति यद्वा मनुष्यायुष्कं प्रकुतदेव कुन्तीति प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम! 'नेरइयाउयं पिपकरेंति' नेरयिकायुष्कमपि प्रकुर्वन्ति 'एवं चविहं पि' एवं चतुर्विधमपि आयुष्पकुर्वन्ति नैरयिकायुष्क कुर्वन्ति विर्यग्योनिका युष्कमपि प्रकुर्वन्ति मनुष्यायुष्कमपि मकुर्वन्ति देवायुष्कमपि मकुर्वन्ति कृष्णपाक्षिकतया सिद्धिगमनस्य तदानीमसंभवेन चातुर्गतिकसंसारस्यैव सद्भावात् । 'एवं अन्नाणियवाई वि वेणइयवाई वि' एवम् अक्रियाक्योंकि ये तो सिद्धि में जाने के ही योग्य होते हैं । 'कण्हपक्खिमाणं अंते । जीवा अधिरियाबाई किं नेरइयाउयं पुच्छा' हे भदन्त ! जो कृष्णपाक्षिक जीव अक्रियावादी होते हैं वे क्या नैरधिकायुका बन्ध करते हैं? या तिर्यगाय का पन्ध करते हैं ? या मनुष्यायुका बन्ध करते हैं ? या देवायुका बन्ध करते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा ! नेरहयाउयं पिपकरेति एवं चव्विह पि' हे गौतम! वे नैरयिक आयुका भी बन्ध करते हैं । तिर्यगायुका भी बन्ध करते हैं। मनुष्यआयुका भी बन्ध करते हैं और देवायुका भी बन्ध करते हैं । इस प्रकार ये चारों आयुओं का धन्ध करते हैं। क्योंकी कृष्णपाक्षिक होने से इनमें सिद्धिगमन की उस समय असंभवता रहती है अनाहन में चतुर्विध संसारका ही सद्भाव पाया जाता है । 'एवं अन्नाणियवाई वि वेण गतिमां भवाने योग्य होय छे. 'कण्हपक्खियाणं भंते ! जीवा अकिरियाबाई कि' नेरइयाज्यं पुच्छा' हे भगवन् के ष्णुपाक्षिक वा सञ्ज्यिावाही हाय છે, તેશુ નૈરયિક આયુને ખધ કરે છે ? અથવા તિય‘ચ આયુના ખધ છે ? અથવા મનુષ્ય આયુના બંધ કરે છે ? અથવા દેવ આયુના બંધ કરે છે? આ प्रश्नमा उत्तरभां अलुश्री हे छे - 'गोयमा ! नेरइयाउयं पि पकरेति एवं चव्विहं पि' डे गौतम ! तेथे नैरयि आयुनो या गंध रे छे, तियथ मायुना બંધ કરે છે, મનુષ્ય આયુને પણ બંધ કરે છે. અને દેવ આયુના પશુ અધ કરે છે. આ રીતે તેએ ચારે પ્રકારના આયુને ખંધ કરે છે. કેમ કે કૃષ્ણુપાક્ષિક હાવાથી તેઓમાં સિદ્ધિ ગમનની ચૈગ્યતાના અભાવ રહે છે. તેથી तेथेोभां यारे प्रहारना संसारना सहुलाव रहे थे. 'एवं अन्नाणियवाई वि
SR No.009327
Book TitleBhagwati Sutra Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1972
Total Pages812
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size54 MB
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