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________________ मैन्द्रिका टीका श०२४ उ.१२ सू०३ द्वीन्द्रियेभ्यः पृ. नामुत्पत्तिनिरूपणम् ७३ पृथिवी कायिकेप्रपन्नो भवेत् यदि औधिको द्वीन्द्रिय जीवः उत्कृष्ट काळस्थितिकपृथिवी कवि के पृत्पद्येत तदा - 'एस चेत्र बेइंदिस्त लगी' एपैन द्वीन्द्रियस्य लब्धिःएषैव - अनन्तरपूर्वोक्तव लब्धिः-वक्तव्यता वाच्या, तृतीयगमेऽपि पूर्वोक्तमेव सर्वं वक्तव्यम्, केवलं पूर्वापेक्षा यद्वैलक्षण्यं तदाह- 'णवरं भवादेसेणं जहन्नेणं दो Hereणा" नवरस केवलं कायसंवेवे वैलक्षण्ययस्ति यद् भवादेशेन भशपेक्षया जघन्येन द्वे भग्रहणे, 'उक्को से अमरगहणाई उत्कर्पेगा सवग्रहणानि द्वीन्द्रियजीवानाम् उत्कर्षतोsट भवग्रहणानि भवन्ति एकपक्षम्योत्कृष्ट रिथतिकस्वात् 'कालादेसेणं जहन्नेणं बावीस वाससदस्साई अंतोमुहुतमन्महिया' कालाहो जाता है तो वहाँ पर भी 'एस चेव वेइंदियस्थ लद्धी' यही पूर्वोक्त प्रथम गम सम्बन्धी हीन्द्रिय के प्रथमगम की वक्तव्यता कहनी चाहिये, परन्तु इन तृतीय गम की वक्तव्यता में जो प्रथम गम की अपेक्षा अन्तर है उसे लुत्रकार 'णवरं भवादेसेणं जहन्नेगं दो भवग्गणाई' इस सूत्र द्वारा प्रकट करते हैं - इसमें उन्होंने ऐसा कहा है कि यहां केवल काय संवेध में भिन्नता है, क्योंकि यहां दीन्द्रिय के तृतीयगम में काय संबेध जघन्य से भव की अपेक्षा दो भवों को ग्रहण करने रूप और उत्कृष्ट से आठ भवों को ग्रहण करने रूप है । क्योंकि इस गम में एक पक्ष में उत्कृष्ट स्थितिकता है, इसलिये द्वीन्द्रिय जीवों के उत्कृष्ट से परस्पर आठ भवग्रहण होते हैं । 'कालादेसेणं जहन्नेणं बाबीसं वाससहस्साई अंतोमुत्तमम्भहियाई" तथा काल की अपेक्षा वह कायसंबेध शोभां उत्पन्न धाय छे, तो ते समधभां पशु 'एस चेव वेइदियस्स लद्धी' આ પહેલા કહેલ ગમના એ ઇદ્રિચાવાળા જીવના પહેલા ગમનું કથન કહેવુ જોઇએ પરંતુ આ ત્રીજા ગમના કથનમાં પહેલા ગમ કરતાં જે અંતર—જુદા यागु छे, ते मताववा सूत्र४२ 'णवर' भवादेसेणं जहणेणं दो भवग्गहणाइ” भा સૂત્ર દ્વારા પ્રગટ કરે છે. આ સૂત્રથી તેઓએ એ સમજાવ્યુ છે કે—અહિયાં ફક્ત કાયસ`વેધમાં જુદાપણું છે. કેમ કે અહિયાં એ છ દ્વિચાના ત્રીજા ગમમાં ક્રાયસ વેધ જઘયથી ભવની અપેક્ષાએ એ ભવાને ગ્રહણ કરારૂપ અને ઉત્કૃષ્ટથી આઠ ભવાને ગ્રહણ કરવા રૂપ છે. કેમકે આ ગમમાં એક પક્ષમાં ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ પશુ છે. તેથી એ ઈદ્રિયવળા જીવેાના ઉત્કૃષ્ટથી માઢ ભવ थड होय छे. 'कालादेसेणं जहणेणं बावीसं वाससहस्लाइ अतो मुहुत्तमन्महि• भ० १०
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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