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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.३ सू०६ श्रेण्याः सादित्वादिनिरूपणम् १९६ अपि श्रेणयः कृतयुग्मरूपा ज्ञातव्याः। न तु-त्र्योजादिरूपाः अन यावत्पदेन पाचीमतीच्यायतानां दक्षिणोत्तरायतानां च श्रेणीनां ग्रहणं भवति । ता अपि कृत. युग्म रूपा भवन्ति न तु-योजादिरुगाः। वस्तुस्वभावादेवेति । 'लोगांगाससेढीओ ‘एवं चेव' लोकाफाशश्रेणयोऽपि-एवमेव, लोकाकाशश्रेगयोऽपि द्रव्यार्थतया कृत. युग्मरूपा एव भवन्ति न तु योजादिरूपा वस्तुस्वभावत्वादिति । 'एवं अलोगागाससेढीओ वि' एवम्-लोका काशश्रेणीवदेव-अलोकाकाशश्रेगयोऽपि द्रव्यार्थतया कृतयुग्मरूपा.एव न तु-योजादिरूपा भवन्तीति । अथ प्रदेशार्थतया कृतयुग्मरूपा यता ही कारण है । 'एवं जाब उडमहाययाओ' इसी प्रकार से ऊर्ध्व अधः आयत जो श्रेणियां हैं वे श्री कृतयुग्म रूप हैं ऐसा जानना चाहिये । योजादि रूप नहीं हैं यहां यावत्पद से पूर्व से पश्चिम तक लम्बी श्रेणियों का और दक्षिण से उत्तर तक लम्पी श्रेणियों का ग्रहण हुआ है। अतः ये श्रेणियां भी कृतयुग्मरूप ही हैं। योजादिरूप नहीं हैं। क्यों कि वस्तु का स्वभाव ही ऐसा है। ___अप श्री गौतमस्वामी प्रशुश्री से ऐसा पूछते हैं-'लोगागाससेढीओ एवं चेव' हे सदन्त ! क्या लोकाफाश की श्रेणियां कृतयुग्मरूप हैं ? अथवा योजरूप हैं ? अथवा द्वापरयुग्मरूप हैं ? अथवा कल्यो जरूप हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्रीने ऐसा कहा कि हे गौतम! लोकाकाश की जो श्रेणियां है वे भी द्रव्यार्थता ले कृतयुग्मरूप ही हैं योजादिरूप - नहीं है । एवं अलोगागाससेढीओवि' इसी प्रकार से अलोकाकाश की श्रेणि के संबंध में भी कहना चाहिये । अर्थात् अलोकाकाश की श्रेणियां भी द्रव्यार्थताले कृलयुग्मरूप ही होती हैं किन्तु योजादिरूप नहीं होती है। નીચે લાંબી જે શ્રેણિ છે, તે પણ કૃતયુમ રૂપ છે તેમ સમજવું જોઈએ જ વિગેરે રૂપ નથી. અહી યાં યાવત્પદથી પૂર્વથી પશ્ચિમ સુધીની લાબી શ્રેણિ ગ્રહણ કરાઈ છે. તેથી આ શ્રેણિયે પણ કૃતયુગ્મ રૂપ જ છે એજ રૂપ નથી કેમકે વસ્તુને સ્વભાવ જ એવે છે. हवे श्री गौतम स्वामी प्रभु श्रीन से पूछे छे -'लोगागाससेढीयो एव चेव' 8 सन शनी श्रेणिये। शुकृतयुग्म ३५ छ १ २५२१। व्यास રૂપ છે? અથવા દ્વાપર યુગ્મ રૂપ છે? અથવા કાજ રૂપ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રીએ એવું કહ્યું કે-હે ગૌતમ ! કાકાશની જે શ્રેણિયે છે, તે पक्ष द्रव्यशाथी कृतयुग्म ३५० छे. ज्या वि३३५ नथी 'एष अोगा. गासेसेढीओ वि' मेरा प्रमाणे म शनी श्रेणियाना विषयमा ५१ यु જોઈએ. અર્થાત્ અલકાકાશની શ્રેણિયે પણ દ્રવ્યાર્થપણાથી કૃતયુગ્મરૂપ જ છે. । यो ३५ साती नयी. . . .
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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