SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 714
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती सूत्रे ६९६ " 'सिय साइयाओ - अज्जबसियाओ' स्यात् - कदाचित् सादिकाः- आर्यव सिताः साधनन्ता इत्यर्थः, अयं द्वितीय भङ्गकः । स च लोकान्ताऽधेरारभ्य सर्वज्ञातयः | 'सिय अगाइयाओ - सपज्जवमियाओ' स्यात् कदाचित् अनादिकाः – सपर्यवसिताः अनादिसान्ता इत्यर्थः अयं तृतीयो भङ्गकः । अयं च लोकान्तसन्निधौ श्रेणीनामन्तस्य विवक्षणादिति । 'सिय अगाइयाओ - अरज्जवसियाओ' स्यादनादिका अपर्यवसिताः अनाद्यनन्ता इत्यर्थः । अयं चतुर्थो भङ्गका सच लोकं परिहृत्य याः श्रेणवः तदपेक्षया कथित इति । 'पाईगडीणाचयाम दाहिणुत्तराययाओ य एवं चे' माचीनाचिनायाः दक्षिणोत्तरायाच श्रेणयः एवगया है । अर्थात् मध्यलोकवर्ती क्षुल्लक प्रतर के पास आई हुई ऊर्ध्व और अधः लम्बी श्रेणियों की अपेक्षा से यहां यह प्रथम भंग कहा गया है । 'सिय साइयाओ अपज्जबसिघाओ' कई एक श्रेणियां सादि अनन्त है - ऐसा यह जो द्वितीय संग यहाँ कहा गया है वह लोकान्त से आरम्भ कर चारों तरफ गई हुई श्रेणियों को आश्रित करके कहाँ गया है । 'सिय अगाइयाओ लफ्ज्जबसिघाओ' कई एक श्रेणियां अनादि मान्त हैं - ऐसा जो यह तृतीय भंग यहां कहा गया है सो लोकान्त के पास समस्त श्रेणियों का अन्त होता है इस अभिप्राय को लेकर कहा गया है । 'लिय अगाइयाओ अपज्जवसियाओ' कंई एक श्रेणियां अनादि अनन्त हैं ऐसा जो यह चतुर्थ भंग यहाँ कहा गया है वह लोक को छोडकर जो श्रेणियां आई हुई हैं उन्हे अश्रित करके कहा गया है । ' पाईण पडीणाययाओ दाहिणुत्तरापघाओ य एवं चेत्र ' આશ્રય કરીને કહેલ છે, અર્થાત્ મધ્યલેાકમાં રહેલ ક્ષુલ્લક પ્રતરની પાસે આવેલી ઉપર અને તેનો નીચેની લાંખી શ્રેણિયાની અપેક્ષાથી આ પહેલે ભંગ અહિયાં કહ્યો છે. ૧ 'सिय साइयाओ अपज्जवसियाओ' टसि श्रेशियो साहि अनंत हो એવા જે ખીન્ને ભગ અહિયાં કહ્યો છે, તે લેાકાન્તથી આરંભ કરીને ચારે तर गयेसी श्रेशियोनो आश्रय उरीने उस छे. तेभ समनं 'सिय अणाइयाभो सपज्जबसिया ओ' डेंटलिङ थ्रेशियो मनाहि सान्त छे, या प्रभा જે આ ત્રીજે ભંગ અહીયાં કહ્યો છે, તે લેાકાન્તની પાસે સઘળી શ્રેણિયાના संत थाय छे ते अभिप्राय थी उस छे. 'सिय अणाइयाओ अपज्जवसियाओ' કેંટલીક શ્રેણિયા અનોદિ અને અનત છે, એ પ્રમાથેના જે ચાથા ભંગ કહ્યો છે, તે લેાકને છોડીને જે શ્રેણીયા આવી છે, તેના આશ્રય કરીને કહેલ છે. 'पाईण पडीणाययाओ दाहिणुत्तराययाओ य एव चेव' आ४ रीने पूर्वथी
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy