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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२५ उ.३ सू०६ श्रेण्याः सादित्वादिनिरूपणम् ६९५ दिति । एवं जाय उमहाययाओं एवं यावदूर्भाध आयता यावत्पदेन प्राचीप्रतीच्यायत-दक्षिणोत्तरायतश्रेण्योः संग्रहः । तथा च-इमाः सर्वा अपि सादिकाः सपर्यवसिताः, न तु-त्रितयपक्षवत्य इत्यर्थः । 'अलोगागास सेढी यो णं भंते' अको. काकाशश्रेणयः खलु भदन्त ! 'कि साइयायो पुच्छा ?' किं सादिका:-सपर्यव: सिताः पृच्छा ? हे भदन्त ! अलोकाकाशश्रेगयः सादिकाः सान्ताः । अथवा सादिका:-अनन्ताः । अथवा-अनादिकाः-तान्ताः । अथवा-अनादिका:-अनन्ता इति प्रश्नः भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि। 'गोयमा' हे गौतम । 'सिय साइयाओ सपज्जवसियानो' स्यात-सादिकाः सपर्यवसिताः, सायाः-सान्ताश्च कदाचिः द्भवन्तीत्यर्थः । अयं प्रथमो भङ्गकः क्षुल्लकमानपत्यासत्तौ ऊर्धायतश्रेणी रश्रित्य ज्ञातव्य इति। है। बाकी के भंग नहीं क्योंकि लोकाकाशपरिमित है। 'एवं जाव उड़ महापया प्रो' इसी प्रकार से यावत् ऊर्ध्व से अब तक की लम्बी जी श्रेणियां हैं वे भी सादि सान्त हैं। यहां यावद से पूर्वपश्चिम तक जो लम्बी श्रेणियां हैं वे एवं दक्षिण से उत्तर तक जो लम्बी श्रेणियां है वे सादि सान्त हैं। शेष भंग यहां नहीं कहा है अब गौतमस्वामी प्रभुश्री से ऐसा पूछते हैं -'अलोगागाससे ढीओ णं भंते ! कि साइयाओ पुच्छा' हे भदन्त ! अलोकाकाश की जो श्रेणियां हैं वे क्या सादि सान्त है ? अथवा सादि अनन्त हैं ? अथ अनादि सान्त हैं ? अथवा अनादि अनन्त है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! सिय साहयाओ सपज्जवसियाओ कई एक श्रेणियां सादि सान्त हैं । यह कथन क्षुल्लक प्रतर के पास में जो ऊर्धायत श्रेणियां हैं उनको आश्रित करके किया સ્વીકાર થયેલ છે. બાકીના ભાગે સ્વીકારાયા નથી. કેમકે કાકાશ પરિમિત छे. 'एव जाव उढमहाययाओ' मे०४ शते यावत् 6५२थी नीय सुधानी aich જે શ્રેણિયે છે, તે પણ સાદિસાન છે. અહિયાં-યાવત્પદથી પૂર્વથી પશ્ચિમ સુધીની જે લાંબી શ્રેણિયો છે તથા દક્ષિણથી ઉત્તર સુધીની જે લાંબી શ્રેણિ छ, a wधी साई सान्त छे. माहीना का महीह्या नथी. . वे श्री गौतभस्वामी प्रसुश्रीन मे पूछे छे है-'अलोगागाससेढी ओगं भते । किं साइयाओ पुच्छा' हे भगवन् मसाशनी २ श्रेणिय। छ, ते શું ? સાદિ સાત છે ? અથવા સાદિ અનંત છે? અથવા અનાદિ સાત છે? અથવા અનાદિ અનંત છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમ સ્વામીને छ है-'गोयमा ! सिय साइयाओ सपज्जवसियाओ' मि श्रगियो स સાન્ત છે, આ કથન ક્ષુલ્લક પ્રતરની પાસે જે ઉર્વાયત શ્રેણિયે છે, તેને
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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