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________________ भगवतीसूत्रे ૬૪ एवम् एतेन अभिलापेन यथैव स्थितौ यथासमयस्थितिविषये कथितम् तथैवसेनैवाभिलापेन वृत्तादिसंस्थानेष्वपि वक्तव्यमिति । तथाहि - 'परिमंडले णं संठाणे कालवन्नपज्जवेहिं सिय कडजुम्मे जाव सिय कलिओगे' इत्याद्यालापकाः सर्वत्र कार्या: । ' एवं नीलवनपज्जवेहिं' एवं नीलवर्णपर्यवेः यथा काळवर्ण पर्यवैः कृतयुग्मादिरूपं परिमंडल संस्थानं कथितं तथैव नीलवर्णपर्यवैरपि कृतयुग्मरूपाणि यावद - कल्यो जरूपाणि ज्ञातव्यानीति । ' एवं पंचहि वण्णेहि' एवं कालनीतिवर्णद्वयं सम्मेल्य पञ्चभिर्वर्णैः परिमण्डलादीनि संस्थानानि ज्ञातव्यानि । यथा कालनीलवर्णपर्यवैः परिमण्डलादिसंस्थानानि कथितानि तथैव शेष-लोहित-हारिद्र. - शुक्लरूपवर्णजयपर्यवैरपि कृतयुग्मादिरूपाणि वाच्यानीति । एवमेव परिमण्डळादि अभिलाप से जैसा कथन समय एवं स्थिति के विषय में किया गया है उसी प्रकार का कथन यहाँ पर भी करना चाहिये । अर्थात्- 'परिमंडलेणं संठाणे कोल बन्नपज्ज वे हिं सिय कडजुम्मे, जाब सिय कलि ओगे' इस प्रकार के ओलापक यहां सर्वत्र कहना चाहिये । 'एवं नीलवन्नपज्जवेहिं' जिस प्रकार कृष्णवर्ण की पर्यायों की अपेक्षा से परिमंडल संस्थान कृतयुग्म रूप यावत् कल्यो जरूप कहा गया है उसी प्रकार से वह नीलवर्ण की पर्यायों की अपेक्षा से भी कृतयुग्म रूप यावत् कल्योज रूप कहा गया है । 'एवं पंचविणेहिं' जिस प्रकार से कृष्णवर्ण की पर्यायों की और नीलवर्ण की पर्यायों की अपेक्षा से परिमंडलादि संस्थान कृनयुग्म रूप यावत् कल्यो जरूप कहें गये हैं उसी प्रकार से वे शेष लोहित, हारिद्र और शुक्लवर्ण की पर्यायों की अपेक्षा से भी वे कृतयुग्मादि रूप कहे हैं ऐसा जानना चाहिये । इसी प्रकार से परिमंडल आदि संस्थान 'दोहिं સ્થિતિના સબધમાં જે પ્રમાણેનુ કથન કરવામા આવ્યુ છે. એજ રીતનુ अथन सांप २' हा अर्थात् 'परिमंडळे ण' 'सठाणे कालवन्नपज्जवेहि सिय कडजुम्मे जाव सिय कलिओगे' या प्रभाहीना आता अडींयां अघे ४ हेवा लेखे. ' एवं नीलवन्नपज्जवेहि" ऋष्णुवानी पर्यायानी अपे ક્ષાથી જે પ્રનાણે પરિમ ́ડલ સંસ્થાન મૃતયુગ્મ રૂપ યાવત્ લ્યેાજ રૂપ કહ્યુ છે, એજ રીતે તે નીલવશ્ના પર્યાયેાની અપેક્ષાથી પણ કૃત યુગ્મરૂપ યાવત્ કલ્યેાજ રૂપથી કહ્યું છે 'एव पंचहि वण्णेहि ' ? प्रमाणे कृष्णणुवाना પર્યાચાની અને નીલવર્ણ ના પર્યાચાની અપેક્ષાથી પરિમ`ડા ચૈાજ દ્વાપર વિગેરે સ’સ્થાના મૃતયુગ્મ રૂપ યાવત્ કલ્ચાજ રૂપ કહ્યા છે, એજ રીતે તેએ બાકીના લેાહિત-લાલ હારિદ્ર–પીળા અને શુકલ-ધેાળા વના પર્યાયેની અપેક્ષાથી પણ કૃતયુગ્મપિ કહ્યા છે. તેમ સમજવુ. એજ રીતે પિરમ’લ
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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