SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 662
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ___ भगवतीले तदेव च युग्मप्रदेशिक द्वादशप्रदेशिकम् तचैवम् एतस्य पट्पदेशिकस्योपरि ० ० ० पट्मदेशिक एवान्यः प्रतरः स्थाप्यते ततो द्वादशदेशिक भरतीति । ० ० ० 'उकोसेणं अणंतपएसिए तहेव उत्कर्षेणाऽनन्तप्रदेशिक तथैव असंख्या- आ.नं. १७ तप्रदेशावगाढमित्यर्थः। 'तत्थ णं जे से घगायए से दुविहे पन्नत्ते' तत्र खल यत् तत् घनायतं तत् द्विविधं प्रज्ञप्तम् 'तं जहा' तद्यथा 'ओयपएसिएय' ओजप्रदेशिकं च 'जुम्मपएसिए य' युग्मपदेशिकच 'तत्य णं जे से ओयपए से जहन्नेणं पणयालीसपएसिए पणयालीसपएसोगाढे' तत्र खलु यत् तत् ओजपदेशिक तत् पश्चचत्वारिंशत्मदेशिकम् पश्चचत्वारिंशत्पदेशावगाढम् आ. नं. १८ अस्योपरि-००००० अन्यत्मतरद्वयं स्थाप्यते इत्येवं क्रमेण पञ्च चत्वारिंशत्प्रदेशिक जघन्यमो. ००००० जमदेशिक घनायतं भवतीति 'उक्कोसेणं अणतपएसिए तहेव' उत्क ००००० घेणाऽनन्तमदेशिकम् तथैव असंख्यातपदेशावगादं च 'तत्थ णं जे से- आ. नं. १८ प्रदेशी होता है इसका आकार सं. टीका में आ. नं. १७ से दिया है। 'उस्कोलेणं अतएएसिए तहेव' तथा यह उत्कृष्ट से वह अनन्तप्रदेशों वाला होता है और आकाश के असंख्यात प्रदेशों में अवगाहना वाला होता है। तत्थ णं जे से घणायते' उनमें जो घनायत होता है वह 'से दुविहे पनत्ते' यह दो प्रकार का कहा गया है। 'तं जहा' जैसे-'ओयपएसिए __ यजुरुषपएलिए य' ओजप्रदेशिक घनायत और युग्मप्रदेशिक घनायत 'तत्थ णं जे से ओथपएसिए से जहन्नेणं पणयालीसपएसिए पणयासी. पएसोगाढे' इनमें जो ओजप्रदेशिक घनायत है वह जघन्य से ४५ पैंता. लीस प्रदेशों वाला होता है और आकाश के ४५ पैंतालीस प्रदेशों में उनका अवगाढ होता इसका आकार सं. टोकामें आ. नं. १८ से दिया છ પ્રદેશોમાં તેને અવગાઢ રહે છે. આ છ પ્રદેશ પ્રતરની ઉપર બીજા છ પ્રદેશી પ્રતરની સ્થાપના કરવાથી બાર પ્રદેશી થાય છે. તેનો આકાર स. टीभी मान. १७ थी मापेa 'उकोसेण अणंतपएसिए तहेव' તથા આ ઉત્કૃષ્ટથી અનંત પ્રદેશવાળું હોય છે, અને આકાશના અસંખ્યાત प्रशामा अगाडनावाणु होय छे, 'तत्थ ण जे से घणायते' मा २ घनायत सस्थानहाय छे. 'से दुविहे पन्नत्तेत मे प्र४२४सले, 'त'जहा' मा प्रभारी छ.-'ओयपएसिए य जुम्मपएसिए य' सी०४ प्रदेशवाणु घनायत भने युम्भ प्रदेशपाणु बनायत, “तत्थ ण जे से ओयपएसिए से जहन्नेणं पणयालीसपएसिए' पणयालीसपएसोगाढे' तमांग मा प्रदेशाधनायत संस्थान है, धन्यथा ૪૫ પિતાળીસ પ્રદેશવાળું થાય છે. અને આકાશના ૪૫ પિસ્તાળીસ પ્રદેશમાં તેને અવગાઢ હોય છે તેને આકાર સં. ટીકામાં આ નં. ૧૮ થી બતાવેલ છે.
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy