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________________ ! प्रचन्द्रिका टीका श०२४ उ. २४ सु०२ सनत्कुमारदेवोत्पत्तिनिरूपणम् ५०३ तादिदेवा मनुष्येभ्य एवोत्पद्यन्ते मनुष्येष्वेव प्रत्यागच्छन्तीति उत्कर्षतो भवतकं भवतीति । 'कालादेसेणं जहन्नेणं अट्ठारससागरोबमाई दोहिं वासपुतेर्हि अम हियाई' कालादेशेन जघन्येनाष्टादश सागरोपमाणि द्वाभ्यां वर्षपृथकत्वाभ्यामभ्यधिकानि 'उक्को सेण सत्तावन्नं सागरोवमाई चउर्हि पुनकोडीहिं अमहियाई ' उत्कर्षेण सप्तपञ्चाशत्सागरोपमाणि चतसृभिः पूर्वकोटिभि रभ्यधिकानि, आननदेवानामुत्कर्षन एकोनविंशतिसागरोपमाणि आयुः तत्र भवत्रयभावेन सप्तपञ्चाशत् सागरोपमाणि भवन्ति, तथा मनुष्यभच्चतुष्टय संबन्धि पूर्वकोटिचतुष्काभ्यधि कानि भवन्तीति । ' एवइयं जात्र करेज्जा' एतावन्तं यावद मनुष्यगतिमानतदेवकायसंवेध भव की अपेक्षा सान भवों को ग्रहण करने रूप होता है । क्यों कि आनतादिक देवों का उत्पाद मनुष्यों से ही होता है और पुनः यहां से चवकर देवों का उत्पाद मनुष्यों में ही होता है । इस प्रकार उत्कृष्ट से सात भव वन जाते हैं । 'कालादेसेणं जहन्नेणं अट्ठारस सागरोमाई दोहिं वासपुतेहिं अमहियाई' काल की अपेक्षा कायसंवेध जघन्य से दो वर्षपृथक्त्वों से अधिक १८ अठारह सागरोपम का है और 'उक्कोसेणं' उत्कृष्ट से 'सत्तावन्नं सागरोदमाई चउहिं पुण्वको डीहि अमहियाई' चार पूर्वकोटि अधिक सत्तावन सागरोपम का है । क्योंकि आनतदेवों की उत्कृष्ट स्थिति १९ उन्नीस सागरोपम की है । यहां तीन भव के सद्भाव से ५७ सत्तावन सागरोपम का कायसंवेध काल की अपेक्षा उत्कृष्ट से हो जाता है । तथा इसमें जो चार पूर्व कोटि अधिकता कही गई है वह चार मनुष्य भवों की चार पूर्वकोटि को लेकर कही गई है 'एवइयं जाव करेज्जा' इस प्रकार से वह जीव - ઉત્કૃષ્ટથી કાયસ વેષ ભવની અપેક્ષાથી સાત ભવો ગ્રહણુ કરવા રૂપ હાય છે. કેમકે-આનત વિગેરે દેવાના ઉત્પાદ મનુષ્યેામાં જ થાય છે. આ રીતે ઉત્કૃष्टथी सात भवो यह भय छे. 'कालादेसेणं जहन्नेणं अट्ठारससागरोवमाइ दोहिं वासपुहुत्तेहि अमहियाई” अपनी अपेक्षाथी हायस वैध धन्यथी मे वर्ष पृथत्वथी अधि १८ अठार सागरोपमा छे, अने 'उकोसेण' टथी 'सत्तावन्नं सागरोवमाइ चउहि पुव्वकोहीहि अव्भहियाइ' यार पूर्व अटि અધિક સત્તાવન સાગરાપમના છે. કેમકે આનત દેવોની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ૧૯ ઓગણીસ સાગરાપમની છે. અહિયાં ત્રણ ભવના સદ્ભાવથી સત્તાવન સાગ પમના કાયસ વેધ કાળની અપેક્ષાથી ઉત્કૃષ્ટથી થઈ જાય છે. તથા તેમાં જે ચાર પૂર્ણાંકોટિનું અધિકપણું કહ્યું છે, તે ચાર મનુષ્ય ભવાની ચાર પૂર્વ કેપ્ટને લઈને
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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