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भगवती सूत्रे
'एकेन्द्रियपृथिवीकायिकजीव एव यदि स्वयं जघन्यकालस्थितिको भवेत् अथ च 'पृथिवीकायिकेषु एवोत्पद्येव तद्दा- 'सो चैव पडथिल्लओ गमओ भाणियन्बो' स एव प्रथमो गमो भणितव्यः, चतुर्थगमे प्रथमगमोक्तमेव सर्वं परिमाणोत्पादादिकं कायसंवेधान्तं ज्ञातव्यम्, केरल प्रथमणमे चतस्रो लेश्याः प्रतिपादिताः, इद्द तु तिस्र एव लेश्या भवन्तीति पक्तव्यम् एन्देव दर्शयति- 'नवरं' इत्यादि, 'नवरं लेस्साओ 'विन्नि' नवरम् - केवलम् लेश्याः कृष्णनीलकापोतिका आचास्तिस एव लेश्या भव'न्वीति । चतुर्थन मे 'लेहकाओ तिनि इवि जघन्यस्थितिकेषु देवो नोत्पद्यते इवि तेजोलेश्या तेषु नास्तीति । तथा-'टिई जहन्नेणं अंगेमुहुत्तं' स्थितिर्जघन्येन अन्तहम उको सेण वि दो' उत्कर्षेणादिमुहूर्तम् जघन्योत्कृष्टाभ्यामन्तपृथिवी कायिक जीव यदि जघन्य स्थिति को लेकर उत्पन्न हुआ है और आगे वह वहां से मरकर पुनः पृथिवी कायिकों में उत्पन्न होने के योग्य है - तो इस स्थिति में यहां चतुर्थ गम में प्रथम गम में कथित ही सब परिमाण उत्पाद आदि विषय कायसंपेधान्त तक का कह लेना चाहिये, परन्तु इस चतुर्थ गम्में पूर्वोक्त प्रथम गम में किये गये कथन से यदि कोई विशेषता है तो वह इस प्रकार से है - प्रथम गममें उसके
लेश्याएं कही गई हैं और यहां उसके तीन वेश्याएं कही गई हैं, यही बात 'नवरं तिन्नि लेस्साओ 'इस सूत्र पाठ द्वारा सूत्रकारने प्रकट की है कृष्ण नील और कापोतिक ऐसी ये छेश्याएं यहां होती हैं। तेजोलेश्या यहां नहीं होने का कारण यह है कि यहां जघन्य स्थिति. वालों में देवों का उत्पाद नहीं होता है, तथा 'ठिई जहन्नेणं अंतोमु
उक्को सेण वि०' यहां स्थिति जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त की है એ કહ્યું છે કે-તે એકેન્દ્રિય પૃથ્વીકાયિક જીવ જો જઘન્યકાળની સ્થિતિથી ઉત્પન્ન - થયેા છે, અને ત્યાંથી મરીને પાછા પૃથ્વિકાયિકામાં ઉત્પન્ન થવાને ચાગ્ય થયા છે, તેા આ સ્થિતિમાં આ ચેાથા ગમમાં પડેલા ગમમાં કહ્યા પ્રમાશેના પરિમાણુ, ઉત્પાદ, વિગેરે કાયસ'વેધ સુધિના વિષય સમજવે. પરંતુ 1. માં ચાથા ગમમાં પૂર્વીક્ત પહેલા ગમમાં કહેલ કથનથી જો કાંઇ વિશેષપણુ
છે, તા તે આ પ્રમાણે છે પહેલા ગમમાં તેને ચાર લેશ્યાએ કહી છે. અને रमा थोथा गभभां तेने त्रशु बेश्या उही छे, भेट वात 'नवर' तिन्नि लेस्साओ' " मा सूत्रपाई द्वारा मतावी छे, सहीयां हृष्य, नीस, भने आयोति से त्र વૈશ્યાઓ હાય છે. અહિયાં તેજોલેશ્યા કહી નથી તેનું' કારણ એ છે કે અહિયાં
धन्य स्थितिवाणागोभां देवाना उत्पात थतो नथी. तथा 'ठिई जहणणं “अंतोमुडुत्तं उक्कोसेण वि' सहीयां स्थिति ४धन्यथी मे अतभुङ्घ्रिर्तनी छे, भने
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