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________________ ܙܐ प्रमेययन्द्रिका टीका शं०२४ उ.१२ सू० १ पृथ्वी कायिकानामुत्पात निरूपणम् मुहूर्त्तममाणैव स्थितिरिति भावः । 'अपसत्या अज्झ वाणाः' - अपशस्ता अध्यवसायाः, -- अध्यवसायाः विचाराः, ते च न तेषां शुभभावनारूपा अपितु अशुभभावनारूपा एवेति । 'अणुबंधो जहा ठिई' अनुबन्धो यथा स्थितिः, येनैव प्रकारेण स्थितिः - कथिता तेनैव प्रकारेण अनुबन्धोऽपि ज्ञातव्यः जघन्योत्कृष्टाभ्याम् अन्तर्मुहूर्त्तात्मक एव 'स्थित्यात्मकत्वादनुबन्धस्येति । 'सेसं तं चैव' शेपम् - लेश्यास्थित्यध्य-. वसायानुबन्धातिरिक्तं सर्वमपि दृष्टममुद्यातज्ञानाज्ञानादिक तदेव प्रथममकरणपठितमेव इहाध्येतव्यमिति चतुर्थो गभ इति ४ । - अथ पञ्चममं दर्शयति- 'सो चेव' इत्यादि, 'सो चेव जहन्नकालडिएस उववन्नो' स एव पृथिवीकायिकजीव एव जघन्यकालस्थितिक - पृथिवीकायिकेषु उत्पन्नो भवेत् तदा 'सच्चेव चउत्थगमवत्तच्वया और उत्कृष्ट से भी वह एक अन्तर्मुहूर्त्त की है । 'अप्पलत्था अज्झवसांणा' अध्यवसाय विचार यहां अप्रशस्त होते हैं शुभभावना रूप वे यहां नहीं होते हैं किन्तु अशुभ भावना रूप होते हैं । अनुबन्ध तो स्थिरात्मक होने से यहां जघन्य और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूतीत्मक. ही है । 'सेसं तं चेच' लेश्या स्थिति अध्यवसाय एवं अनुषन्ध के सिवाय और सब दृष्टि समुद्घात ज्ञानाज्ञान आदि विषयक कथन प्रथम गम के जैसा ही है । ऐसा यह चतुर्थ गम है | ४ | पंचम गम इस प्रकार से है - 'सो चेव जहन्न कालट्ठिएस उवचन्नो' यदि वही जघन्य स्थितिवाला पृथिवीकायिक जीव जघन्यकाल की स्थितिवाले पृथिवीकायिकों में उत्पन्न होने के योग्य है तो यहां पर 'सच्चेव चउत्थगमवन्तन्वया भाणियन्श' चतुर्थगम में जो वक्तव्यता उत्सॄष्टथी पृष्णु शेड अतभुहूर्त'नी छे. 'अप्पलत्था अज्ञवसाणा' अध्यवसायઆત્મપરિણામ-વિચાર અહિયાં અપ્રશસ્ત હેાય છે. શુભ ભાવના રૂપ પ્રશસ્ત વિચાર અહિયાં હાતા નથી. પરંતુ મશુભ ભાવના રૂપ અપ્રશસ્ત જ હાય છે. અનુખ'ધ સ્થિતિ રૂપ હાવાથી તે અહિયાં જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટથી અંત भुहूर्त ३५ ०४ छे, 'सेसं त' चेव' सेश्या, स्थिति, अध्यवसाय भने अनुणध शिवाय जाडीतु दृष्टि, समुद्घात, ज्ञान, अज्ञान, विगेरे विषय समधी સ્થન પહેલા ગમમાં કહ્યા પ્રમાણે સમજવું આ પ્રમાણે આ ચેાથા ગમ છે. ૪ પાંચમા ગમ या प्रमाणे छे. - 'सो चेव जहन्नकालट्ठिएस उत्रवन्ना' જો તે પૃથ્વિીકાયિક જીવ જઘન્ય કાળની સ્થિતિવાળા પૃથ્વીકાયિકામાં ઉત્પન્ન थषाने योग्य छे, तो ते समधभां यड़ियां पयु 'सच्चेव चढत्थगमवत्तव्वया' =
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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