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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ उ.२१ सू०१ मनुष्याणामुत्पत्तिनिरूपणम् ३६५ तिर्यग्योनिकोक्तमेव परिमाणमवसेयमिति। परिमाणातिरिक्तेऽपि वैलक्षण्यं घोतयितुमाह-'जाहे' इत्यादि, 'जाहे अप्पणा जहन्नकालटिइओ भवइ' यदा आत्मना-स्वयं जघन्यकालस्थितिको भवति 'ताहे पढमगमए अज्झवसाणा पसत्था वि अपसत्था वि' तदा प्रथगगम के मध्यमगमानां प्रथमगमे औधिकेपृत्वद्यमानानामित्यर्थः अध्यवसायाः प्रशस्ताः शुभा अपि भवन्ति उत्कृष्ट स्थितिकत्वेनोत्पत्तेः' अप्रशस्ता अशुभा अपि अध्यवसाया भवन्ति जघन्यस्थितिकत्वेनोत्पत्तेः। 'वितियगमए अपसत्या' द्वितीयगमके तु जघन्यस्थितिकस्य और अष्टम इन गमों में जघन्य और उत्कृष्ट से परिमाण कहा नहीं है -इसलिये इन गमों में वह जैसा पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों के प्रकरण में कहा गया है-वैसा जानना चाहिये। 'जाहे अएणा जहन्नकालद्विइओ अवह इस सत्र द्वारा परिमाण से अतिरिक्त द्वारों में भी जो भिन्नता है उसे प्रकट किया गया है । जब पृथिवीकायिक स्वयं जघन्य काल की स्थिति को लेकर उत्पन्न होता है 'ताहे पदमनमए अज्ज्ञवसाणा पलत्या वि अपसत्या वि' तब उसके मध्यम तीन गमकों में के प्रथम नमक में-औधिको में उत्पद्यमानता में-अध्यवसाय प्रशस्त भी होते हैं और अप्रशस्त भी होते हैं। तात्पर्य इस कथन का ऐसा है कि जब जघन्य स्थिति छाला पृथिवीकायिक उत्कृष्ट स्थिति वाले मनुष्यो में उत्पन्न होने के योग्य होता है-तय उसके अध्यदलाय प्रशरन होते हैं, और जय वह जघन्य काल की स्थिति बाळे मनुष्यों में उत्पन्न होने के योग्य शेती है। तब उसके ગમોમાં જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટથી પરિમાણ કહ્યું નથી. જેથી આ ગામમાં પ ચેન્દ્રિય તિય ના ગમેમાં તે જે પ્રમાણે કહેલ છે. એ જ પ્રમાણેનું કથન સમજવું. 'जाहे अप्पणा जहन्नकालदिइओ भवइ' मा सूत्राथी परिभा शिवाયના કારોમાં પણ જે જુદા પશુ છે, તે પ્રગટ કરેલ છે. જ્યારે પૃથ્વીકાયિક स्य धन्य जनी स्थिति बन 6.पन्न थाय छ, 'ताहे पढमगमए अज्झवसाणा पखत्था वि अपसत्यावि' त्यारे ना मध्यन| आमामांना પહેલા ગમમાં–વિકેમ ઉત્પન્ન થવાપણામાં અધ્યવસાય પ્રશસ્ત પણ હોય છે અને અપ્રશસ્ત પણ હોય છે આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે-જ્યારે જઘન્ય રિથતિવાળા પૃથ્વિકાયિકે ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિવાળા મનુષ્યમાં ઉત્પન્ન થવાને યોગ્ય હોય છે, ત્યારે તેને અધ્યવસાય પ્રશસ્ત હોય છે. અને જ્યારે તે જઘન્ય કાળની સ્થિતિવાળા મનુષ્યોમાં ઉત્પન્ન થવાને યોગ્ય હોય છે. ત્યારે તેને
SR No.009325
Book TitleBhagwati Sutra Part 15
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages972
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size59 MB
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